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________________ नैष्ठिकाचार हैं। ये दोष सम्यग्दृष्टि के दूषण और मिथ्यादृष्टि के लिए भूषण है। उसमें ये ही सब दुर्गुण पाए जाते हैं, सम्यक्त्व इतने दुर्गुणों को एक बार ही नष्ट कर जीवको गुणवान् बनाता है।१।२।३।४।५। प्रश्नः-निःशंकिताङ्गचिह्नं किं पृष्टे सत्युत्तरं मुदा। निःशंकितनाम्नः प्रथमाङ्गस्य किं लक्षणम् अस्ति इति शिष्येण परिपृष्टे सति आचार्याः सानन्दम् उत्तरं कथयन्ति। सम्यग्दर्शन के आठ गुणों में से प्रथम निशंकित नामा गुण का क्या स्वरूप है, शिष्य के ऐसा प्रश्न करने पर आचार्य हर्षोत्फुल्ल हो उत्तर देते हैं। (अनुष्टुप्) वीतरागोक्तधर्मे हि श्रीदे देवे निरञ्जने । स्वान्यप्रबोधके शास्त्रे सद्गुरौ शान्तिदे सदा ।।२३।। अकम्पा निर्मदा श्रद्धा यस्यास्ति भवभेदिनी । तस्य निःशंकिताङ्गं स्याच्छुद्धं मोक्षफलप्रदम् ।।२४।। वीतराग इत्यादिः- यस्य सम्यक्त्वाराधकस्य महापुरुषस्य वीतरागोक्तधर्मे सर्वज्ञवीतरागप्रणीतजिनधर्मे निरञ्जने रागद्वेषाज्ञानादिभावदोषरहिते-ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीयमोहनीय-आयु-नाम-गोत्रान्तरायाष्टकर्मस्वरूपद्रव्यमलरहिते सिद्धपरमात्मनिच श्रीदे कल्याणमार्गप्रदायके देवे श्रीतीर्थकरपरमदेवे तथा तदुपदिष्टे स्वान्यप्रबोधके स्वपरहितकारके शास्त्रे शान्तिदे तदनुकूलस्वाचाराचरणपूर्वकं संसारभ्रमणभीतान्यप्राणिगणानां श्रीवीतरागोक्तशास्त्रोपदिष्टपरमशान्तिप्रदायकमार्गप्रदर्शक सद्गुरौ अपि अकम्पा निश्चला निर्मदा साम्प्रदायिककुलाद्यभिमानरहिता भवभेदिनी भवदुःखापहारिणी श्रद्धा वर्तते तस्य मोक्षफलप्रदं शुद्धं निःशंकितं नाम प्रथममङ्गं ज्ञेयम्।। २ ३।२४।। रागद्वेष अज्ञानादि सम्पूर्ण भावसंबंधी दोषों से जो रहित हैं तथा जिनके ज्ञानावरण-दर्शनावरण-वेदनीय- मोहनीय-आयु-नाम-गोत्र और अन्तराय ये आठ भवभीतिदायक दोषाधायक कर्म दूर हो गए हैं अतएव जो द्रव्य भाव मल से रहित होकर निरञ्जन हो गए हैं ऐसे सिद्ध परमात्मा में, तथा जो कल्याण कारक मोक्षमार्ग का उपदेश करने के कारण 'श्रीद' हैं ऐसे श्रीजिनेन्द्र तीर्थकरदेव में,तथा उनके द्वारा प्ररूपित स्वपर को उत्कृष्ट ज्ञान प्रदान करनेवाले शास्त्र में और संसार भ्रमण की ज्वाला से जले हुए दूसरे प्राणियों को शान्ति के मार्गप्रदायक सच्चे गुरु में जिस भाग्यवान् को ऐसी दृढ़ श्रद्धा है, अर्थात् जो कितनी घोर विपत्ति पड़ने पर भी उसे अपने मार्ग से विचलित न कर सके तथा जो अन्तरङ्ग से पैदा हुई हो, “मैं जैन कुल का हूँ" ऐसे कुलाभिमान की नींव पर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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