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________________ नैष्ठिकाचार भावार्थ - जागते हुए भी पुरुष के यदि नेत्रों में निद्रा का असर है तो देखते और सुनते व नेत्र उघाड़े हुए भी उसके भ्रमरूप ज्ञान उत्पन्न होता है। उसका ज्ञान उसके लिए हितकर हो यह बात नहीं है। उसकी उस समय के ज्ञान की सत्यार्थता अविश्वसनीय है। जब उसके निद्रा की खुमारी दूर हो जाती है तब वह स्वस्थ होता है और यह अनुभव करने लगता है कि मेरे नेत्र खुले होने पर भी मेरा अब तक का ज्ञान बेकार था । निद्रा दूर होने पर उसके नेत्र (दृष्टि) निर्मल हो जाते हैं और वह हेयोपादेय पदार्थ का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करने में अपने को समर्थ पाता है। मिथ्यात्वरूपी मोह निद्रा से अभिभूत है सम्यग्ज्ञान जिसका उस प्राणी की भी वही अवस्था होती है। उस समय का उसका ज्ञान भी मिथ्याज्ञान ही रहता है। वह वस्तु तत्त्व की यथार्थता तक पहुँच नहीं सकता। परन्तु मिथ्यात्व निद्रा भंग होनेपर वही वस्तु तत्त्व का सम्यग्विवेचन कर सकता है तब उसे यह ज्ञात हो जाता है कि जिन इन्द्रिय विषयों को हम सुख रूप मानते थे वह हमारा भ्रम था । इन्द्रिय विषयों को एकत्रित करने में भी त्रास होता है। क्योंकि वे सहज ही प्रत्येक व्यक्ति को प्राप्त नहीं होते। उनके संग्रहार्थ व्यापार- कृषि - सेवा - वाणिज्य - शिल्प- लेखन आदि षट्कर्म करने पड़ते हैं, न्यायमार्ग को भी अतिक्रान्त कर छल से, बलसे, दूसरे का छीन करके, दूसरे को कष्ट पहुँचा करके, मिथ्या दावा करके भी संग्रह करना पड़ता है। इन सबमें हमारा वर्षों का समय व्यतीत हो जाता है। संगृहीत वस्तु के संरक्षण में भी कम परिश्रम नहीं होता, सदा आकुल व्याकुल परिणाम रहते हैं। दूसरे पुरुषों से संघर्ष भी करना पड़ता है। इस संघर्ष में हानि भी उठानी पड़ती है। कभी-कभी तो प्राण तक गंवा देने पड़ते हैं, इतने पर भी यदि हम संग्रह कर सकें तो "भोगे रोगभयम्” अर्थात् उनके भोगने में भी विपत्ति की शंका है। यदि स्पर्शनेन्द्रिय के विषयभूत काम भोगों को अपनाते हैं और न्यायपूर्वक भी सेवन करते हैं तो शरीर क्षीण होता है, शक्ति कम होती है। क्षीण शक्ति होनेपर ज्वर आदि रोग प्राप्त होते हैं। यहाँ तक कि अतिशय काम भोग का परिणाम क्षय रोग है जिसका इलाज आज तक भी आज-कल का महान् विज्ञान नहीं निकाल सका। अनेक चिकित्सक बिना क्षयवाले को भी क्षय का भय दिलाकर अधिक पैसा व कीर्ति का सम्पादन करने का ही प्रयत्न करते हैं। पर यथार्थतः इस रोग के होने पर इसका इलाज विज्ञान अबतक नहीं निकाल सका। ऐसा भयानक रोग कामभोग के अतिरेक से हीन शक्तिवाले प्राणी को शारीरिक धातुओं के क्षीण हो जाने के कारण होता है। रसनेन्द्रिय वशंगत प्राणी रसना सुख का ध्यान रखकर अनेक गरिष्ठ रोगोत्पादक पदार्थों का मात्रा से अधिक सेवन कर रोगी बन जाते हैं और अपनी जिह्वा को वश में Jain Education International For Personal & Private Use Only ४९ www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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