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श्रावकधर्मप्रदीप
दूसरे के घात तक का प्रसंग उपस्थित कर लेते हैं अथवा दूसरों द्वारा अपमानित होकर जीवन भर दुःख पाते हैं इसलिए अपने गृह सम्बन्धी सुख दुःख को बाहर प्रकट न करे।
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इसके साथ ही साथ यह स्मरण रखना भी आवश्यक है कि मिथ्या परनिन्दा और आत्म-प्रशंसा से भी मनुष्य की कीर्ति नहीं फैलती, न उसकी अच्छी हैसियत समाज में समझी जाती है, इसलिए उससे भी सदैव दूर रहना चाहिए। संसार का यह नियम है कि यदि तुम अपनी प्रशंसा स्वयं करोगे तो दूसरे लोग तुम्हारे इस कार्य की आलोचना करेंगे, जिससे तुम्हारी निन्दा होगी। यदि तुम अपने अवगुणों की निन्दा करोगे तो दूसरे लोग तुम्हारी इस गुण की प्रशंसा करेंगे और उनकी इस आलोचना से तुम्हारी कीर्ति बढ़ेगी।
अपने अवगुणों की स्वयं निन्दा करने से अपने अवगुण दूर हो जाते हैं यदि मनुष्य उन्हें अवगुण मानता रहे तो। इस मार्ग पर चलने वाले को यह ध्यान सदैव रखना चाहिए कि वह अवगुणों को निर्लज्ज होकर प्रकट न करे। निर्लज्ज पुरुष अवगुण को गुण मान लेता है। उसे ग्राह्य समझता रहता है। उस दुर्गण को छोड़ता नहीं और अपनी उस अकीर्ति को ही कीर्ति मानकर प्रसन्न होता है। इसके विरुद्ध सुजन पुरुष अपने अवगुण की निन्दा करता हुआ उस दोष से मुक्त होने का प्रयत्न करता है। जब तक वह दुर्गुण दूर नहीं होता लज्जित होता है। लज्जा ऐसे स्थल पर भूषण है। ऐसे प्रसंगों पर लज्जा न रहना एक महान् दुर्गुण है। यह दुर्गुण एक ऐसा अभेद्य किला है कि जिससे दूसरे सद्गुण उस मनुष्य में प्रवेश नहीं पाते। वह सदा के लिए अवगुणी बन जाता है।
अपने अवगुणों की निन्दा वही मनुष्य करता है जिसे दुर्गुणों से प्रीति न होकर गुणों से प्रीति है, जो अवगुण त्यागकर गुणी बनना चाहता है। यही कारण है कि वह अन्य पुरुष के गुण अवलोकन करता व उन गुणों की प्रशंसा करता है। वह चाहता है कि अपने भीतर गुण ही विद्यमान हों, पर यदि उनका स्वयं वर्णन किया जाय तो यही एक दुर्गुण है, इसे दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। इसी तरह दूसरे व्यक्तियों में यदि सचमुच अवगुण हैं और उन अवगुणों का प्रकाशन किया जाय तो यह भी एक दुर्गुण है। इससे भी बचना चाहिए।
श्रावक उपगूहन अंग का धारक है। वह किसी धर्मज्ञ पुरुष की निन्दा नहीं करता, उसके अवगुण प्रकट नहीं करता, किन्तु गुण निरीक्षण कर उन्हें प्रकट करता है। इस
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