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________________ पाक्षिकाचार लेता है और यदि हितू ही शत्रु बन जाय तो अनर्थ की परम्परा को फिर कोई नहीं रोक सकता। ऐसे गृहस्थों का जीवन नरकतुल्य कलह में ही व्यतीत होता है, इसलिए परस्पर में सापराध भी हों तो भी कटुभाला का प्रयोग पाक्षिक को न करना चाहिये। __ गृहस्थ जीवन को दुःखमय बनाने वाली दूसरी बात है स्वगृहच्छिद्रप्रकाशन अर्थात् अपने गृहस्वामी या गृहस्वामिनी की दूसरे से निन्दा करना, एक दूसरे के दोषों का वर्णन करना, अपनी हीनता दुरवस्था को दूसरों पर प्रकट करना इत्यादि। गृहस्थ जीवन में अनेक घटनाएँ बीतती हैं। कभी-कभी सांपत्तिक स्थिति अच्छी होती है तब मनुष्य का रहन-सहन, खान-पान, ओढ़ना-पहिनना और वस्त्राभूषण कुछ अच्छे तरीके के होते हैं और जब दरिद्रता पल्ला पकड़ती है तब बात-बात में कष्ट उठाने पड़ते हैं। दोनों अवस्थाओं को दूसरों पर प्रकट कर अभिमान या निन्दा नहीं करनी चाहिये। हम चाहे अपने घर में सुखी हों या दुखी पर किसी के सामने हाथ नहीं पसारना चाहिये, अपने परिश्रम द्वारा उपार्जित धन से ही अपना स्वाधीन जीवन व्यतीत करना चाहिये। स्वाधीन जीवन में कष्ट भी सुखदायी होते हैं और पराधीन जीवन के सुखसाधन भी कांटे की तरह शल्य रूप होते हैं, इसलिये अपने घर की वार्ता यदि वह गोपनीय है तो उसे प्रकाशित करने में लाभ नहीं, हानि ही है। तुम्हारे प्रकाशित छिद्र को सुनकर लोग हंसेंगे या तुम्हारी कमजोरी जानकर तुम पर हमला करेंगे और तुम्हारे कष्ट को बढ़ावेंगे। कोई भी गृहस्थ चाहे धनी हो या निर्धन, बलवान हो या निर्बल, समझदार हो या कमसमझ, चतुर हो या मूर्ख, सदाचारी हो या कदाचारी, लोभी हो या निर्लोभ, उदार हो या अनुदार किन्तु वह सर्वसाधारण समाज के सामने सदा अच्छी हैसियत से रहने का प्रयत्न करता है। वह लोगों की दृष्टि में सदैव अपने जन, धन, बुद्धि, बल, वैभव, प्रतिष्ठा, सदाचार, कीर्ति, उदारता और संतोष आदि सद्गुणों की (जो कि प्रत्येक गृहस्थ में होना आवश्यक हैं) धाक जमाए रखना चाहता है। भले ही वह उनमें अपनी हीनता का अनुभव करता हो पर समाज में अपनी हैसियत अच्छी रहे इसके लिए प्रयत्नशील रहता है। वह अपनी इस प्रतिष्ठा के बल पर ही व्यापारादि के द्वारा आर्थिक लाभ तथा व्यवहार के द्वारा कीर्ति का उपार्जन करता है। यदि कोई स्त्री अपने घर की इन बातों को दूसरों से प्रकाशित करे या कोई पुरुष अपनी स्त्री के विरुद्ध दूसरों में उसकी निन्दा प्रकाशित करे तो उसका व्यापार या सामाजिक व्यवहार हीन हो सकता है जिससे दोनों के जीवन कष्टप्रद हो जाते हैं और कभी-कभी ऐसे प्रसंगों पर लोग आत्मघात या एक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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