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________________ ३२ श्रावकधर्मप्रदीप भी उसे सुनने के लिए आकर्षित होते थे। यह आकर्षण तत्त्वप्रकाशन के कारण नहीं था क्योंकि सर्वसाधारण मनुष्य, देव या पशु पक्षी तत्त्ववार्ता को उतना समझते नहीं, किन्तु उनकी प्रिय मधुर हितकारक वाणी में यह आश्चर्यकारी आकर्षण था। मुनियों के चारित्र में वचन गुप्ति और भाषा समिति को प्रधान स्थान प्राप्त है। इसका अर्थ यह है कि या तो वचन ही न बोलें और बोलें तो प्रिय, हित वचन थोड़े बोलें। जो चीज अपने सम्पूर्ण रूप में तीर्थंकर को भी महत्त्व प्रदान करती है और जो मुनि जीवन में भी अपना प्रधान स्थान रखती है वह गृहस्थ जीवन के लिए क्यों न उपयोगी होगी। गृहस्थ का चारित्र भी मुनि के चारित्र का एकदेशरूप है इसलिए गृहस्थ को भी उचित है कि यदि वचन बोले तो हित, मित और प्रिय बोले, अन्यथा भाषण ही न कर मौन रखे। यह मधुर भाषण पद्धति जिस तरह बाहिरी संसार में हमारे जीवन को सुखी बनाती है इसी तरह इसका सफल प्रयोग घर-संसार के प्राणियों में भी सम्पूर्ण कष्ट और सन्तापों को दूर करने की महौषधि है। वर्तमान समय में घर-घर में कलह देखने में आती है उसका एकमात्र कारण अप्रिय कटुक वार्तालाप ही है। पुरुष वर्ग यदि शिक्षित होता है तो वह अपनी विद्वत्ता के अभिमान के कारण अपनी अशिक्षित पत्नी का निरन्तर अनादर करता है, उससे प्रियसंलाप नहीं करता। इसी तरह यदि स्त्रियाँ अशिक्षित होती हैं तो वे शिष्ट भाषण का नाम तक नहीं जानतीं। स्त्रीवर्ग के शिक्षित और पुरुषवर्ग के अशिक्षित होने पर भी ठीक यही दशा होती है। दम्पत्ति को उचित है कि एक दूसरे को उत्तम शिक्षा देकर प्रिय भाषण द्वारा सुखी बनावे। वे तभी संसार में उच्च आदर्श का सृजन कर सकते हैं। परमार्थ सिद्धि के लिए जैसे साधु संस्था है वैसे ही इहलौकिक उन्नति के लिये गृहस्थ जीवन अंगीकार करना भी आवश्यक है। ये दोनों श्रेणियाँ प्राणी को यथायोग्य सुखी बनाने के लिये हैं। इनके अतिरिक्त तीसरी श्रेणी मध्यममार्गियों की है। जो गृहस्थ जीवन का क्रमशः त्यागकर साधु मार्ग पर जाना चाहते हैं। यह श्रेणी भी ग्राह्य है। इन तीनों के अतिरिक्त अनियमित और असंयत जीवन व्यतीत करनेवाले, एक दूसरे के सुख दुःख का साथ न देनेवाले, दूसरों को कष्ट पहुँचाकर अपना स्वार्थ साधन करनेवाले; अप्रिय संलाप के द्वारा दूसरों को कष्ट पहुँचाकर खुश होनेवाले लोगों की श्रेणी ग्रहण करने योग्य नहीं। ऐसे लोगों का गृहस्थ जीवन कष्टमय व्यतीत होता है। अप्रियसंलापी स्त्री-पुरुषों में परस्पर बात-बात में विरोध रहता है, यह विरोध क्रमशः वैर का रूप ले Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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