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________________ पाक्षिकाचार बनाने का प्रयत्न करना ही सुखी गृहस्थ जीवन का सर्वोत्तम उपाय है। यह उपाय तभी सफल हो सकता है जब कि दोनों परस्पर मधुरभाषी हों। गृहस्थ जीवन में यह भी पद-पद पर सम्भावित है कि पति पत्नी में किसी विषय को लेकर भिन्न-भिन्न मत हो जाय, ऐसे समय अपनी बात दूसरे को समझाने के लिए भी प्रिय वाणी का उपयोग करना चाहिए। ३१ यह भी सम्भव है कि दोनों में से कोई एक दूसरे का अपराध कर बैठे। ऐसी दशा में अपराधी को उसका अपराध समझा देना ही उसे दूर करने का पर्याप्त उपाय है, यदि वह मधुर शब्दों द्वारा समझा दिया गया हो । सारांश यह है कि दम्पत्ति का पारस्परिक व्यवहार मधुर हो तो उसका जीवन सुखी रह सकता है अन्यथा दुःखी रहेगा। मनुष्य जीवन सुखी बनाने में मधुर वाणी का ही प्रधान हाथ है, दूसरी बातों का उतना महत्त्व नहीं है। मनुष्य एक दूसरे के प्रति अपना अभिप्राय वाणी द्वारा ही प्रकट करता है और उसी से दूसरे के हृदय के भावों को परखता है। घोर अपराधी भी वचनों के द्वारा अपने आन्तरिक अभिप्राय को प्रकट कर क्षमापात्र बन जाता है तथा एक निरपराधी भी अपने कटुभाषण के द्वारा सर्वसाधारण की दृष्टि में भी अपराधी बन जाता है । मधुरभाषियों की प्रकृति समान न होने पर भी परस्पर मेल खा जाती है, समान प्रकृतिवाले व्यक्तियों में भी यदि किसी प्रसंग में कठोर शब्दों द्वारा वार्ता हो जावे तो विरोध उत्पन्न हो जाता है। बड़ा से बड़ा अपराधी अपने मधुर भाषण से अपने अपराध को माफ करा लेता है। वचन का बहुत मूल्य है, वचन अमृत है यदि हित मित और प्रिय हो । श्री तीर्थंकर भगवान् में जन्म के समय से जो १० अतिशय (विशेषताएँ जिनके कारण वे सर्वोच्च माने जाते है) होते हैं उनमें प्रियहित वचन भी एक महान् अतिशय माना गया है। इससे यह स्पष्ट प्रमाणित हो जाता है कि भगवान् तीर्थंकर देव अनेकों गुणों के द्वारा यद्यपि विभूषित थे तथापि संसार के समस्त प्राणियों के लिए वे इसीलिये महान् बन सके कि उनके वचन जन्म से ही प्रिय और हितकारक थे। भगवान् की दिव्यध्वनि का महत्त्व उसकी गम्भीरता सर्वार्थप्रतिपादकत्वादि गुणों के ही कारण नहीं प्रकट हुआ बल्कि इसलिए महत्त्व प्रकट हुआ कि उनकी वाणी इतनी मधुर थी कि उसे सुनने के लिए देवता भी तरसते थे और साधारण प्राणियों में पशु-पक्षी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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