________________
पाक्षिकाचार प्रकार का स्वभाव किसी भी व्यक्ति के लिए अत्यन्त लाभप्रद होता है। ऐसा मनुष्य यदि दुष्ट पुरुषों की संगति में भी पड़ जाय तो उसपर उस कुसंग का असर नहीं पड़ता, क्योंकि वह अवगुणग्राही है ही नहीं। उसे तो वहाँ से भी गुण ले लेना है यदि कुछ मिलें तो, यदि गुण न भी हो तो वह उनके अवगुणों पर दृष्टि ही न देगा। अपनी इस प्रकृति के कारण वह गुणी ही रहेगा, कभी अवगुणी न होगा।
___ इसी तरह जो व्यक्ति अपने भीतर के दोषों का सदा निरीक्षण कर आत्म-निन्दा करता है उसके सम्पूर्ण दोष दूर हो जाते हैं। वह दिन प्रति दिन निर्दोष बनता जाता है, इसलिए श्री आचार्य कहते हैं कि निज-निन्दा और परगुण-प्रशंसा सम्पूर्ण सुखों को प्रदान करनेवाली है।
गृहस्थ जीवन में कभी-कभी किसी बाल, अज्ञान या धर्मद्वेषी पुरुष के साथ व्यवहार करने का प्रसंग आता है उस समय कठिन समस्या उपस्थित हो जाती है। उन अज्ञानियों या धर्मद्वेषियों के सामने आत्मनिन्दा या स्वदोष प्रदर्शन करना विपरीत प्रभाव उत्पन्न करता है। अज्ञानी तो वक्ता या उपदेश दाता को दुर्गुणी मान लेता है और उससे यह कुशिक्षा ग्रहण करता है कि जब ऐसे धर्मज्ञ पुरुष में इतने दुर्गुण हैं जैसा कि वे कहते हैं तो मुझमें कौन बहुत दुर्गुण हैं। उसकी दुर्गुणों से घृणा हट जाती है। वह गुणी पुरुष में दुर्गुण होना मानकर दुर्गुणों का रहना कोई अधिक हानिप्रद बात नहीं मानता। इसी तरह वह सुजन से अपनी प्रशंसा सुनकर आत्मतोष से भर जाता है और अभिमानी होकर गुण प्राप्ति के लिए फिर कोई प्रयत्न नहीं करता।
धर्मद्वेषी पुरुष भी अज्ञानी पुरुष की तरह स्वात्म-निन्दक पुरुष के वचनों को ही प्रमाण में उपस्थित कर धर्मात्माओं की निन्दा करने लगता है और धर्म से घृणा करने लगता है और अपनी प्रशंसा सुनकर अपने अधर्म की भी प्रशंसा स्वयं गाता है और इस तरह स्वात्मनिन्दक पुरुष की सज्जनता से अनुचित लाभ उठाता है। ऐसे व्यक्तियों के सामने स्वात्म-निन्दा और परप्रशंसा का कोई मूल्य नहीं, इसलिए उनमें यह पद्धति न स्वीकार की जावे। उचित पात्रों में ही उक्त विधि के प्रयोग का उपदेश श्रीगुरु का है, यह समझकर ही उक्त विधि स्वीकार करनी चाहिए।।१४।।
एतस्यैव समर्थनार्थ निम्नश्लोकमाहइसी विषय के समर्थन के लिए आचार्य पुनः उपदेश कहते हैं
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org