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________________ पाक्षिकाचार अभाव था। अल्पाहार, अल्प इच्छाएँ, नियमित भोग, नियमित उपभोग, नियमित विहार, सन्तानोत्पतित व जन्म-मृत्यु के समान नियम तथा कल्पवृक्ष द्वारा ही सम्पूर्ण इच्छाओं की पूर्ति ये सब भोगभूमि की विशेषताएँ थीं। कर्मभूमि का प्रारम्भ होते ही इनमें अन्तर आया । सन्तानोत्पत्ति के नियम बदल गये। भोगभूमि में बालक-बालिका युगल उत्पन्न होते थे। अब अलग-अलग समय में एक-एक ही उत्पन्न होने लगे। उस समय वे बालक सात सप्ताह में स्वयं वृद्धि पाकर युवावस्था सम्पन्न बन जाते थे, पर अब उनके परिपालन व परिवर्द्धनों में वर्षों का समय लगने लगा। अब युवावस्था के प्राप्त होने में सोलह वर्ष लगने लगे। बालकों का परिपालन व परिवर्द्धन स्वयं न होकर दूसरों की सहायता से (यह सब कार्य) होने लगा। उस समय सन्तानोत्पत्ति माता-पिता के आयु के अन्तिम जीवन में होती थी और समान काल में सन्तान युगल के जन्म लेने के पश्चात् दोनों की आयु समाप्त हो जाती थी, पर कर्मभूमि में माता-पिता के मध्य जीवन में बल्कि युवावस्था के प्रारम्भिक समय में ही सन्तान उत्पन्न होने लगी । यही कारण है कि जिससे कर्मभूमिज बालकों के माता-पिता पर अपनी सन्तान के पालन-पोषण का तथा उनके व अपने भविष्य के जीवन के निर्वाह के लिए योग्य सामग्री के संचय करने का भार आ पड़ा । २१ ज्यों-ज्यों भोगभूमि का अन्त निकट आया मनुष्य की लालसाएँ तथा भोगोपभोग की सामग्री के संचय करने की प्रवृत्ति बढ़ती गई, कल्पवृक्षों पर अपना-अपना कब्जा किया जाने लगा, छीना-झपटी होने लगी । कलह का बीज यहीं से शुरू हुआ। अपनी-अपनी सन्तान का मोह तथा अपना शेष जीवन यापन करने में आनेवाली आपत्तियों के निराकरण करने की चिन्ता लोगों को यहीं से प्रारम्भ हुई। इतना ही नहीं, पापमूलक परिग्रह से संचय करने की प्रवृत्ति का प्रारम्भ भी यहीं से हुआ । प्रकृति ने परमोदार कल्पवृक्षों को ऐसे पापस्थान से धीरे-धीरे उठा लिया । जनता चिन्तित हुई। उस समय के कुलधर्मप्रवर्त्तक कुलकरों ने उन्हें खेती द्वारा धान्य उत्पन्न करने की सम्मति दी। लोगों ने उसे मान्य किया। खेती होने लगी। उत्पन्न धान्य को संग्रह करने व उसे सुरक्षित रखने का प्रश्न खड़ा हो गया। इसे हल करने के लिए घर बनाने की आवश्यकता हुई। भोगभूमि में शीत, उष्ण और वर्षा का कोई कष्ट न था। वह सब अब क्रमशः प्रारम्भ होने लगा, इसलिए भी घर बनाने की तथा वस्त्र बनाने की जरूरत लोगों को मालूम हुई। इस आवश्यकता ने ही कृषि और शिल्प उद्योग को जन्म दिया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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