SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ श्रावकधर्मप्रदीप इन दोनों व्यवसायों की वृद्धि के लिए यह भी आवश्यक मालूम होने लगा कि ग्रामान्तरों से लाने व ले जाने की भी प्रवृत्ति चालू होनी चाहिए। जो लोग स्वयं यह सब कार्य न कर सकें वे दूसरों को मदद दें। इस तरह वाणिज्य तथा मसि (लेखन कर्म-मुनीमी आदि) कर्म का प्रारम्भ हुआ। जो लोग उक्त कार्यों द्वारा कोई उद्योग नहीं कर सकते थे वे दो भागों में विभक्त हुए। उनमें कोई तो बलवान् थे जो परिश्रम करने के बजाय दूसरों का झपट लेना ही उत्तम समझते थे, कोई ऐसा करनेवालों को न्यायी न समझकर उनसे मोर्चा लेने को तैय्यार रहते थे। दोनों एक ही श्रेणी में शामिल हुए और इनके जिम्मे प्रजा का पालन रक्षण तथा पारस्परिक कलह का निवारण कर न्याय नीति की प्रवृत्ति का कार्य सौंपा गया और इस तरह असिकर्म (शस्त्रग्रहण द्वारा लोक-रक्षक) का जन्म हुआ। इन तरीकों में से किसी भी तरीके पर अपनी जीविका न कर सकनेवाले शेष लोगोंने उक्त सभी वर्गों की भिन्न-भिन्न प्रकार की सेवाओं के कार्य अंगीकार कर लिए और ये सेवाकर्म द्वारा ही अपना जीवन निर्वाह करने लगे। इस तरह क्रमशः कृषि, शिल्प, वाणिज्य, मसि, असि और सेवा ऐसे षट्कर्मों की सृष्टि हुई। ___ इन सभी वर्गों के लोगों की प्रवृत्ति ठीक उचित तरीके पर रहे और कोई किसी पर अनुचित जोर न करे इसका प्रबन्ध जिन असिकर्म करने वाले बलवान् और वीर पुरुषों के ऊपर अवलम्बित था, उनमें भिन्न-भिन्न मत न होकर एकमत से कार्य हो इसके लिए उनमें किसी योग्य बुद्धिमान उदार निस्वार्थी व्यक्ति को प्रजा द्वारा मुखिया चुना गया और उसे 'राजा' की संज्ञा दी गई। कर्मभूमि के प्रारम्भ का और भोगभूमि के अन्त का समय ही ऐसा था, जब यह सब हुआ। समय-समय पर अत्यन्त बुद्धिमान् अवधिज्ञानी कुलकर होते रहे, जिन्होंने सम्पूर्ण प्रवृत्तियों का मार्ग जनता को बतलाया और स्वयं के परिश्रम से उक्त कार्य को सुसम्पन्न किया। ___ इस युग के प्रारम्भ में अन्तिम कुलकर भगवान् आदिनाथ स्वामी के पिता श्री नाभिराय हुए। उसके बाद भगवान् ऋषभदेव ने उक्त सम्पूर्ण प्रजा के बाह्य और आभ्यन्तर संस्कारों के अनुसार क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीनों वर्गों में प्रजा को विभक्त किया तथा भगवान् के पुत्र श्री भरत चक्रवर्ती ने, जिनके नाम पर इस देश का भारत नाम पड़ा, ब्राह्मण वर्ण की स्थापना की। इस तरह चार वर्णों की स्थापना हुई। इस व्यवस्था के बन जाने पर भी अनेक ऐसे दुष्ट पुरुष होने लगे जो व्यवस्था को बिगाड़ कर भी बिना परिश्रम किये जोर-जुल्म से दूसरों को संपत्ति हड़पने लगे। इसके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy