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________________ पाक्षिकाचार का परिपालन करनेवाले मुनि, अर्जिका, श्रावक व श्राविकाओं से अत्यन्त प्रेम होता है। वह उनकी प्रशंसा करता है, स्तुति करता है और उनका पदानुसरण करने की इच्छा रखता है। यथासमय आवश्यकता के अनुसार उनकी सेवा करता है। उनके धर्म साधन में हर तरह की सहायता पहुँचाता है। वह अपनी इस महती परोपकारवृत्ति में ही अपना कल्याण मानता है। वास्तव में जिस तरह स्वयं धर्म का पालन करनेवाला धर्मात्मा है उसी तरह दूसरों के धर्म पालन करने के कार्यों में सहायता पहुँचानेवाला, उनके दुःखों और कष्टों को दूर करनेवाला व उनके धर्म साधन के कार्य में यदि कोई विघ्न हो, कंटक हो; तो उसे दूर करनेवाला भी धर्मात्मा है। धर्मात्मा के लिए यदि कोई दुष्ट पुरुष बाधा उपस्थित करे तो पाक्षिक श्रावक पहले उसे समझाकर उस मार्ग से हटा देता है। इतने पर भी कोई दुष्ट दुष्टता न छोड़े तो धन देकर, राजकीय आश्रय लेकर या दूसरे पुरुषों की वांछनीय सहायता लेकर जैसे हो धर्मिक पुरुषों के उपसर्ग को दूर करता है। यदि इतने पर भी दुष्ट अपनी दुष्टता न छोड़े तो वह वीर पुरुष कायर की तरह चुप नहीं बैठता। उसके मन में धर्म व धर्मात्मा के प्रति दिखाऊ प्रीति नहीं है। वह हर संभव उपाय से विघ्नों को दूर करता है। ऐसा करते हुए यदि अपने या विघ्नकर्ता के प्राण भी जोखम में पड़ जाँय तो भी वह अपने धर्मरक्षा के कार्य से विमुख नहीं होता। वह या तो उपसर्ग को दूर करके रहता है या उसी कार्य में अपने को मिटा देता है। धर्म के प्रति ऐसा उत्कट प्रेम धर्मात्मा के प्रति ऐसा ऊँचे दर्जे का वात्सल्यभाव पाक्षिक श्रावक के हृदय में होता है। वह कायर नहीं होता, विध्नों से घबराता नहीं, डटकर मुकाबला करता है और धर्म की प्रभावना जगत्कल्याण के लिए युग-युग के लिए फैला जाता है। बिना ऐसे श्रेष्ठ साहसी वीर धर्मात्माओं के धर्म पालन का मार्ग अक्षुण्ण नहीं बनता। पाक्षिक श्रावक स्वयं धर्म पालन में पूर्ण समर्थ न होते हुए भी अपनी इस सर्वोच्च वृत्ति के कारण मोक्ष के मार्ग में अपने को विशेष उपयोगी सिद्ध कर देता है। वह परोपकार तथा अपने कल्याणकारक कार्यों को अपना धर्म समझता है। इस प्रकार की विमल बुद्धि को धारण करनेवाला पाक्षिक श्रावक होता है ।। १० ।। १९ प्रश्न- दुष्टादिशिष्टविषये वद मेऽस्ति भावः कीदृग्गुरो सुखनिधे खलु पाक्षिकस्य? हे स्वात्मानन्दपरिपूर्णगुरो! सज्जनदुर्जनयोर्विषये पाक्षिकस्य कीदृग्भावो भवति ? हे आत्मसुख के समुद्र गुरु! सज्जन और दुर्जन इन दोनों के सम्बन्ध में मुझ पाक्षिक को अपने कैसे विचार रखने चाहिए? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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