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________________ १८ श्रावकधर्मप्रदीप हे गुणसमुद्र! पाक्षिकावस्थायां मे लोकोपकारिकार्यकारणे कीदृग्भावः खलु उपादेयोऽस्ति इत्युपदेशः करणीयो भवद्भिः । पाक्षिक श्रावक की प्रवृत्ति लोकोपकार के कार्य में कैसे रहती है इस प्रश्न का उत्तर आचार्य महाराज आगे लिखते हैं — (वसन्ततिलका) विघ्नं करोति यदि मे शिवदेऽपि कार्ये प्राणांस्त्यजामि खलु तत्प्रतिरोधनार्थम् । स्वान्योपकारकरणं हि ममेति धर्मो भावोऽस्ति यस्य विशदः स च पाक्षिकोऽस्ति ।। १० ।। विधनं करोतीत्यादि - पाक्षिकः खलु सदा मनस्येवं विचारयति यत् को मम धर्म: ? स्वोदरपूरणाय स्वभोगयोग्यसामग्रीसंयोजने प्रयत्नन्तु सर्वे कुर्वन्त्येव न तत्र कस्यापि शिक्षकस्य शिक्षाया आवश्यकता वरीवर्ति । उक्तप्रकारेण स्वार्थसाधनमात्रमेव कर्त्तव्यं यदि स्यात्तर्हि लोके कलहाग्निर्नितरां प्रज्वलितः स्यात्, अतएव स्वोपकार- करणचिकीर्षोरपि बुद्धिमतः कर्त्तव्यमेतद् यत्परोपकारवृत्तिराश्रयणीया। परोपकारवृत्तिमाश्रित्य स्वोपकारकरणमुपादेयम् इति स्वान्योपकारकरणमेव म एकमात्रं धर्मोऽस्ति । शिवदेऽपि कल्याणकारकेऽपि मम धर्मकार्ये यदि कश्चिदेकान्ततः स्वार्थी विध्नं प्रत्यूहं करोति विदधाति तर्हि तत्प्रतिरोधनार्थं विघ्नविनाशनायाहम् प्राणानपि त्यजामि त्यक्षामि । शुभकार्येषु प्रायेण विघ्नास्समायान्ति । श्रावकः खलु विचारयति यन्मे सामर्थ्यं परिपूर्णधर्मपालने नास्ति, अतएव सधर्मणां श्रावकाणां मुनीनाञ्च धार्मिका प्रवृत्तिः यथा निर्विध्ना भवेत् तथैव प्रयतितव्यम्। धार्मिकाणां धर्मपरिरक्षणे तत्र समापतितोपसर्गादिनिराकरणे च स कदापि प्रमादी न भवति। वीरवृत्तिमनुसरन् स स्वप्राणपरित्यागपर्यन्तमपि सन्नद्धो भवति । धार्मिकैस्सह यस्यैवं विशदो निर्मलो वात्सल्यभावो वर्तते स एव पाक्षिकः श्रावकः स्यात् ||१०|| पाक्षिक श्रावक स्वोपकार और परोपकार दोनों का परस्पर अविरुद्ध रीति से पालन करना ही अपना धर्म समझता है और उसके पालन करने में सदा कटिबद्ध रहता है। ऐसा करने में ही वह अपनी व दूसरों की भलाई सोचता है। उसके इस कल्याणकारक कार्य में यदि कोई विघ्न करे तो उसे वह हर एक उपाय से रोकता है। साधारण उपायों द्वारा यदि वह उपसर्ग निवारण में समर्थ नहीं होता तो अपने प्राणों की भी बाजी लगा देता है अर्थात् प्राण देकर भी विघ्नों को दूर कर देता है। इस तरह वात्सल्यपूर्ण पवित्र भाव जिसके हृदय में होता है वही पाक्षिक श्रावक होता है। भावार्थ - यह बात पहले भी लिखी गई है कि पाक्षिक श्रावक स्वयं धर्म के पालन करने में मोहनीय कर्म के प्रबल उदय से अपने को असमर्थ पाता है तथापि उसे धर्म Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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