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________________ पाक्षिकाचार १७ भी पैसा कमा लेते हैं उसी तरह वह कष्ट सहकर भी कीर्ति कमा लेना चाहता है। पैसा कमाने वाले की अपेक्षा यद्यपि उसका स्वार्थ कम है तथापि इस प्रकार का दान या सेवा वास्तविक दाने या सेवा नहीं है। __ अनेक सज्जन इसलिए भी कीर्ति कमाने के लिए उक्त कार्य करते हैं कि इससे दानियों या नेताओं की श्रेणी में बैठकर लोगों से अच्छी कमाई की जा सकती है। ऐसे लोग और भी ज्यादा भयंकर हैं। इनका कार्य निन्दनीय है। यह कभी भी ग्राह्य नहीं माना जा सकता। इस वृत्ति का जितने जल्दी त्याग हो उतना ही अच्छा है। इस प्रकार यह पाक्षिक गृहस्थ अपने दान और पूजा इन दोनों धर्मों को निस्पृहवृत्ति से पालता है। वह स्वयं सम्यग्दर्शन ज्ञान-चारित्रस्वरूप रत्नत्रय का आराधक है। उसे पूर्णरूप से पालन करने का अभिलाषी है। वह अपनी इस धार्मिक वृत्ति को हृदय में सदा जागृत रखना चाहता है। वह चाहता है कि मेरे हृदय पर रत्नत्रय का चिह्न सदा अंकित रहे ताकि गार्हस्थिक जंजाल में-विषय वासनाओं के विषम विषमय संसार में मैं अपने रत्नत्रयात्मक उस स्वधर्म को भूल न जाऊँ, अतएव वह अपने कण्ठ में यज्ञोपवीत धारण करता है। यज्ञोपवीत रत्नत्रय का चिह्न है, इसीलिए वह तीन सूत्र का होता है। यह गृहस्थ के षोडश संस्कारो में प्रधान संस्कार माना गया है। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्गों के लिए ही यज्ञोपवीत धारण करने का विधान है। शूद्र संस्कार रहित होते हैं इसलिए वे पाक्षिक श्रावक के व्रतों का परिपालन करने के लिए एक तो यथायोग्य सेवा-वृत्ति को अंगीकार करते हैं। दूसरे दान पूजा करनेवालों की अनुमोदना करते हैं और यज्ञोपवीत धारण करनेवालों की प्रशंसा करते हैं। इस प्रकार की वृत्ति से ही उनका पाक्षिकव्रत पूर्णता को प्राप्त होता है। पाक्षिक श्रावक अपनी उक्त श्रेष्ठ वृत्ति के द्वारा सदा सुखी और शान्त प्रकृति का होता है। अपने उच्चतम धार्मिक संस्कारों के कारण उसकी प्रकृति और बुद्धि सदा गम्भीर और प्रत्येक स्थिति में तत्त्व विमर्श करनेवाली होती है। वह संसार के दूसरे प्राणियों के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है। भार रूप नहीं होता। थोड़े शब्दों में हम उसे धर्मभवन की सम्पत्ति का पूर्ण रक्षक वीर सैनिक कह सकते हैं।।९।। प्रश्न-लोकोपकारविषये वद मेऽस्ति भावः कीदृग्गुरो गुणनिधे खलु पाक्षिकस्य। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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