SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 47
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६ श्रावकधर्मप्रदीप उत्तम पात्र मुनि (साधु), दूसरे दर्जे में अल्प आचरण करनेवाले गृहस्थ धर्मात्मा और तीसरे दर्जे में श्रद्धालु गृहस्थ इनको यथायोग्य उनकी आवश्यकतानुसार आहार व रोग-पीड़ित होने पर औषधि की व्यवस्था करता है। गृहस्थ यदि आजीविका के साधनों से रहित हो तो धनादि की सहायता देकर आजीविका में लगाता है। दीन, दुखी और दरिद्री को देखकर उनका कष्ट दूर करने के लिए यदि आवश्यकता हो तो अपने भोगयोग्य विषयों का भी त्याग कर उनका कष्ट दूर करता है। उक्त सुपात्र व करुणापात्रों की सेवा के लिए यदि किसी दूसरे की सहायता की अपेक्षा हो तो उसे प्राप्त करने के लिए स्वयं मानादि कषाय का त्याग करके भी उसे प्राप्त कर लेता है। सेवाधर्म को अपना प्रधान लक्ष्य बनाकर धर्म-सेवा, धार्मिक-सेवा, समाज-सेवा, जाति-सेवा, ग्राम-सेवा, देश-सेवा और राष्ट्र-सेवा में लगा रहता है। तात्पर्य यह कि गृहस्थ के करने योग्य आवश्यक कार्य पाक्षिक करता है। इनके लिए वह अपने इन्द्रिय भोग्य विषयों का त्याग करके भी कष्ट सह लेता है। पाक्षिक श्रावक प्रत्येक सेवा-कार्य को क्रोध व अभिमान का त्याग कर स्वार्थ वासना से रहित होकर निष्कपट सरल वृत्ति से अपना धर्म समझकर करता है। यह उसका दान नाम दूसरा धर्म है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के आराधक जो पुरुष संसार की निवृत्ति के मार्ग में लगे हुए हैं वे ही दान के योग्य सर्वोकृष्ट पात्र माने गये हैं। इसी से साधुओं को उत्तम पात्र कहा है। उसके बाद जो जितना अधिक उत्तम चारित्र के आराधक हैं। वे उतने ही योग्य पात्र हैं। पात्रदान गृहस्थ का मुख्य कर्तव्य है। पात्रों के सिवाय जो अन्य व्यक्ति हैं, पशु हैं, पक्षी हैं, कीड़े-मकोड़े हैं और एकेन्द्रिय जीव हैं, वे भी आवश्यकतानुसार सेवा योग्य हैं। पाक्षिक श्रावक अपनी शक्ति के अनुसार सब की सेवा करता है। सेवा कार्य के लिए उक्त क्रम है। क्रम का त्याग कर की हुई सेवा लाभदायक नहीं होती। उससे दाता का अविवेक प्रगट होता है, किन्तु उसका विवेकी होना अत्यावश्यक है। उक्त प्रकार का दान और सेवा के कार्य स्वार्थवासना से रहित होकर परोपकार के निमित्त हो तभी प्रशंसा योग्य हैं। अनेक भाई लोक में कीर्ति-प्रशंसा की इच्छा से अपना नाम बनाये रखने की गरज से, देश-सेवकों, समाज-सेवकों या दातारों में नाम गिनाने की इच्छा से सेवा या दान करते हैं, किन्तु वह दान या सेवा उत्तम दर्जे की न होकर हीन कोटि की मानी गई है। वह एक प्रकार का व्यापार है। जिस तरह लोग कष्ट सहकर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy