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________________ श्रावकधर्मप्रदीप सिद्ध हो जाती है कि शास्त्र वही प्रमाणीभूत है जो परमवीतरागी, निस्पृह, पूर्णज्ञानी, और परोपकारी इन गुणों से परिपूर्ण व्यक्ति द्वारा उपदेशित किया गया हो। वचन की प्रमाणिकता वक्ता की प्रमाणिकता से है। प्रत्येक व्यक्ति इतनी सामर्थ्य नहीं रखता कि वह उपदेशित विषय की सत्यता असत्यता की परीक्षा स्वयं कर सके। इसके लिए भी महान् ज्ञान गंभीर अध्ययन व अनुभव की आवश्यकता है जो कि प्रत्येक व्यक्ति में सम्भव नहीं, अतएव किसी भी वचन में प्रामाणिकता के सम्बन्ध की परीक्षा का मापदण्ड वह व्यक्ति होता है जिसने उक्त वचन कहा हो । यदि वक्तापूर्ण ज्ञानी है तो यह निश्चय कर लिया जा सकता है कि वह वस्तु का स्वरूप बतलाने में भूला नहीं होगा। अज्ञानी या अपूर्णज्ञानी कितना भी परोकार दृष्टिवाला स्वार्थ- वासनारहित हो, पर उसके कहने में ज्ञान की कमी के कारण भ्रम होना नितान्त सम्भव है। इसलिए वक्ता को पूर्णज्ञानी होना आवश्यक है। दूसरी बात यह है कि किसी वस्तु का वास्तविक ज्ञान रखने वाला भी व्यक्ति यदि परोपकरण वृत्तिवाला नहीं है तो वह क्यों किसी को हित मार्ग का उपदेश करेगा? यह कार्य वही करेगा जिसे यह भावना हो कि अज्ञानता के कारण संसार के जो प्राणी भटक रहे हैं उनको सन्मार्गं सुझाया जावे ताकि वे दुःख के मार्ग से दूर होकर अपने को सुखी बना सकें। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि उस वक्ता को पूर्णज्ञानी की तरह परोपकार वृत्तिवाला भी होना आवश्यक है। परोपकारी व ज्ञानी पुरुष भी यदि किसी के प्रति स्नेह और किसी के प्रति विरोधी भावना रखनेवाला होगा तो भी उससे जनता का यथार्थ हित न हो सकेगा। वह अपने स्नेह-भाजन व्यक्तियों को हितकारक मार्ग अवश्य बतायगा पर जिनके प्रति विद्वेष की भावना होगी उसे तो विरुद्ध मार्ग ही बतायगा । लोक में ऐसी घटनाएँ सदा देखने में आती हैं। इसलिए वक्ता में पूर्णज्ञानित्व और परोपकारवृत्तित्व की तरह वीतरागद्वेषित्व अर्थात् स्नेह और वैर रहितत्व-सर्व-जीव- समभाव होना - यह गुण भी आवश्यक है। परोपकारवृत्ति उन्हीं पुरुषों की होती है जिन्हें जीवमात्र पर समभाव होता है। उसे भेद-भाव की भावना दूर रखनी पड़ेगी। मान लो, एक आदमी सड़क पर बीमार और दुःखी पड़ा है, ठंड के मारे अकड़ रहा है, यद्यपि उसके पास ओढ़ने को कम्बल है तो भी वह बेहोश होने के कारण उससे अपना शरीर नहीं ढाँक सकता। ऐसे समय परोपकारवृत्तिवाला गृहस्थ वही हो सकता है जो उस पर अपने भाई-बन्धुओं की तरह समभाव रखता हो - वही व्यक्ति उसे कम्बल से ढक देगा, औषधि का उपचार करने के लिए यदि वह स्वयं वैद्य ( जानकार) न होगा जो कि पूर्ण परोपकार कर सकने के लिए उसे होना चाहिए तो किसी योग्य जानकार व्यक्ति का जो वैद्य हो संयोग जोड़ेगा । १० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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