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________________ पाक्षिकाचार ११ स्वयं घर लाकर उसकी सेवा करेगा और उसे चंगा कर देगा। जो इतना नहीं कर सकता तो समझना चाहिए कि अभी उसके सर्वजीवसमभाव नामक वृत्ति पैदा नहीं हुई। अभी उसे स्वजन और परजन का भेद है, एक से स्नेह और अपर से स्नेहाभाव है। यदि उसके ऐसा भाव न होता तो वह वीतराग और वीत-द्वेष समझा जाता और वह परोपकारी होने का दावा कर सकता था। इससे यही सिद्ध होता है कि वक्ता में उक्त गुण यदि हो तो ही उसके वचनों में प्रमाणता आ सकेगी अन्यथा नहीं। इसलिये सर्वसाधारण पुरुष जो स्वयं तत्त्व-परीक्षा करने में असमर्थ हैं, वे वक्ता को गुणवान् देखकर ही उपदेश की उपयोगिता या अनुपयोगिता को स्वीकार कर लेते हैं। इसलिए सच्चे शास्त्र की परीक्षा का पहिला चिह्न है कि वह वीतरागी, सर्वज्ञ और हितोपदेशी 'देव' या 'जिन' के द्वारा कहा गया हो।।७।। दूसरा विशेषण यह है कि सच्चा शास्त्र वह है जो बोधप्रद हो अर्थात् वास्तविक बोध कहिये- ज्ञान उत्पन्न करनेवाला हो। इस विशेषण की आवश्यकता इसलिए हुई कि सदा सर्वज्ञ परमात्मा संसार में स्थित नहीं रहते। वे तो लोकोपकारक उपदेश देकर मुक्ति दशा को प्राप्त हो जाते हैं। फिर हजारों वर्षों के बाद सर्वसाधारण जनता कैसे निर्णय करे कि यथार्थतया उस परमात्मा का उपदेश कौन शास्त्र में लिखा है, क्योंकि परमात्मा के मुक्ति गमन के बाद अपने को परमात्मा प्रसिद्ध करनेवाले भी अनेक व्यक्ति होते आये हैं और उन्होंने भी जनता के हित का दावा करते हुए पुस्तकें लिखी हैं। उनमें कौन सत्य हैं कौन नहीं इसका निर्णय कैसे होगा? इसका निर्णय करने के लिए हमें अब केवल वक्ता की प्रामाणिकता से वस्तु की प्रामाणिकता की बात भुलानी होगी और इसकी परीक्षा करनी होगी कि ईश्वर के उपदेश के बाद जो परम्परा चली आई है किन्तु अनेक अहम्मन्य हितोपदेशियों के विभिन्न उपदेशों में मिलकर पहिचानने में नहीं आती आखिर उसकी पहिचान कैसे होगी? उसकी पहिचान होगी उपदेशित तत्त्व की परीक्षा से। वह परीक्षा ही ग्रंथकर्ता आचार्य ने 'बोधप्रद' विशेषण द्वारा प्रकट की है। यह देखना होगा कि हमें किस शास्त्र के अध्ययन से बोध अर्थात् वस्तु का यथार्थ ज्ञान होता है? वस्तु का यथार्थ ज्ञान क्या है इसका निर्णय भी सर्वसाधारण का कार्य नहीं। इसलिए उसकी कसौटी “कौ मिथः वैरहरं" इन शब्दों में आचार्य महाराज ने प्रतिपादित की है अर्थात् जिस शास्त्र का उपदेश हमारे परस्पर कलह, वैर, विरोध, ईर्षा, डाह आदि को छुड़ाकर प्रेम व सहानुभूति का पाठ पढ़ावे समझ लो कि वही शास्त्र सच्चा शास्त्र है। यहाँ यह प्रश्न किया जा सकता है कि पहिले राग-द्वेषरहित होना ही श्रेष्ठ बताया गया था और अब केवल वैर छोड़कर Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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