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________________ पाक्षिकाचार बोधप्रदमित्यादि— जिनोक्तम् उक्तलक्षणगुणविशिष्टेन जिनेन उक्तं समुपदिष्टम् बोधप्रदम् अज्ञाननिवृतिपूर्वकं सम्यग्ज्ञानसंपादकम् । श्रीदं श्रियम् अन्तरङ्गलक्ष्मीम् शोभाञ्च ददातीति श्रीदम् । शास्त्रज्ञानेन जीवानां स्वपरभेदज्ञानं भवति तदेव तस्य शोभा । अथवा शास्त्रोपदिष्टमार्गमनुसरन् संसारी संसारस्थदेवेन्द्र-नागेन्द्र-नरेन्द्र तीर्थकरनारायणादिपर्यायसंभवविभूतिविशेषानप्यवाप्नोति स्वपरविभेदपूर्वकम् अनन्तज्ञानदर्शनसुखाद्यात्मकस्वापूर्वसंपत्तिं च प्राप्नोति इति शास्त्रं श्रीदम् । उक्तगुणद्वयविशिष्टमेव शास्त्रं कौ पृथिव्यां सर्वप्राणिनां पारस्परिकं वैरमपहरति यतः पारस्परिकमैत्रीसमुत्पादने शास्त्राणामेवोपयोगदर्शनात् तदेव च सच्छास्त्रम् । वैरविरोधवर्धकत्वात् अहितमार्गप्रदर्शकत्वाच्च शेषमसच्छास्त्रम् इति यावत् । आचन्द्रसूर्यं यावच्चन्द्रदिवाकरौ सच्छास्त्रं पठितुं प्रमाणम् । इत्थं शास्त्रस्य विषये यस्य निश्चयः स च पाक्षिकोऽस्ति ॥ ७ ॥ सच्चे देव का उपदेश ही सच्चा शास्त्र है। उसकी पहिचान यह है कि वह अज्ञान निवृत्ति कर जीवों को वास्तविक बोध देता है। लोक व परलोक में लक्ष्मी को देनेवाला अर्थात् बाह्यसंपत्ति व ज्ञानसंपत्ति को बढ़ानेवाला होता है। साथ ही वह ऐसा होता है कि जिसे सुनकर पृथिवी के प्राणी अपना पारस्परिक वैर छोड़कर प्रेम व सहानुभूति के मार्ग पर उतर आवें। ऐसे शास्त्र सदाकाल जबतक दुनियाँ में सूर्य और चन्द्रमा हैं पठन-पाठन के योग्य प्रमाणीभूत हैं। भावार्थ - इस लोक में शत्रुओं को परास्त कर अपना राज्य वैभव व सम्पत्ति की रक्षा कर लेने के लिए जैसे शस्त्र की उपयोगिता है उसी तरह अपने दुर्गुणरूपी शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए शास्त्र की भी आवश्यकता है। शास्त्र की प्रमाणता की छाप लोगों के हृदयों पर बराबर अङ्कित है। वेद स्मृतिपुराणादि सब शास्त्र के नाम से पुकारे जाते हैं और उनका उपदेश ही लोक में ग्राह्य माना जाता है। मुसलमान भाइयों और ईसाइयों के यहाँ भी कुरान और बाइविल के नाम से शास्त्रों की प्रमाणता सिद्ध है। हरएक सम्प्रदाय का व्यक्ति किसी विवादग्रस्त विषय को सुलझाने के लिए खोज करता है कि इस विषय में धर्म की पुस्तक क्या कहती है । इन सब बातों से यह सिद्ध होता है कि शास्त्र की प्रमाणता की छाप हर सम्प्रदाय के व्यक्ति-व्यक्ति पर अंकित है। इसका कारण यह है कि सम्यग्धर्मोपदेष्टा का मूलतः अभाव होने के कारण लोग उन प्राचीन पुस्तकों को देखकर निर्णय करना चाहते हैं जिनको जमाने का परिपूर्ण अनुभव करके आज से सदियों पहिले लोग लिख गए हैं। अथवा वे मानते हैं कि वह ईश्वरीय पुस्तक है या उसकी देन है या उसका उपदेश है। सारांश यह है कि ईश्वर या 'देव' के विषय में लोगों को जितना आदर है उतना ही आदर उसकी वाणी के प्रति भी है। इससे यह बात सहज Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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