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________________ श्रावकधर्मप्रदीप है तब यह देखता है कि इस मार्ग पर मेरे पूर्व चलनेवाले सज्जन कौन हैं और उनमें क्या-क्या गुण थे? धर्ममार्ग के आदर्श पुरुष ही 'देव' संज्ञा को प्राप्त करते हैं, इसलिए उन्हें 'देव' नाम से ही सम्बोधित किया है। 'देव' संसार के दुःखों से पार हो चुके है, हमें भी पार होना है इसलिए अपने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमें 'देव' की शिक्षा ग्रहण करनी होगी। दुनियाँ के दूसरे-दूसरे विभागों की तरह इस विभाग में भी अपने को 'देव' बताने वाले व्यक्ति बहुत हैं, जो हमें अपने उपदेश के अनुसार चलने को बाध्य करते हैं। यहाँ हमें यह देख लेना आवश्यक है कि इनमें सच्चा देव कौन है, जिसे आदर्श मानकर हम उसकी शिक्षा ग्रहण कर अपना कल्याण कर सकें। उस देव का स्वरूप या उसकी पहिचान यही हो सकती है कि हम जिन राग-द्वेष-मद-मोह आदि १८ दोषों से परिपूर्ण हैं और दुःखी हैं, उस देव में ये दोष न हों हम जिस अपरिपक्व ज्ञान, जिसे अज्ञान कह देना भी अनुपयुक्त नहीं, के कारण भी मार्गभ्रष्ट हो जाते हैं। उस देव में यह दोष भी न हो, वह परिपक्व पूर्णज्ञानी (सर्वज्ञ) हो तथा सर्व प्राणियों के हित की भावना के संस्कार से जिसका उपदेश होता हो। इन तीन गुणों से जो सहित है वही 'देव' पद के योग्य है, वही निर्दोष होने के कारण विश्व-वंद्य है और वही दोषविजयी होने से 'जिन' कहलाता है। पाक्षिक गृहस्थ के हृदय में 'देव' के सम्बन्ध में उक्त विचार निश्चित रहते हैं। वह इन गुणों से रहित व्यक्ति को देव नहीं मानता। उसे दुःखोन्मोचन के मार्ग में साधक न मानकर बाधक ही समझता है। इसलिए उससे दूर रहने का सदा ध्यान रखता है, इस विचार से कि कहीं मैं भुला न दिया जाऊँ कि जिससे वास्तविक मार्ग से दूर हो जाऊँ।।६।। प्रश्न-शास्त्रस्य विषये कीदृग्भावोऽस्ति पाक्षिकस्य मे? धर्मोपदेशने शास्त्राणामपि महत्त्वपूर्ण स्थानं वर्तते इति तस्य किंलक्षणम् तद्विषये मे पाक्षिकस्य कीदृग्विचारः कार्य इति प्रश्ने उत्तरयति धर्मोपदेश के कार्य में शास्त्रों का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है इसलिए शास्त्र के सच्चेपन की क्या पहिचान है इस सम्बन्ध में मुझे क्या विचार रखना चाहिए, ऐसा प्रश्न होने पर उत्तर देते हैं (इन्द्रवज्रा) बोधप्रदं वैरहरं मिथः को श्रीदं जिनोक्तं हि सदेति शास्त्रम्। आचन्द्रसूर्यं पठितुं प्रमाणं स्यानिश्चयो यस्य स पाक्षिकोऽस्ति।।७।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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