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________________ श्रावकधर्मप्रदीप अपने को उसी मार्ग में चलनेवाला घोषित करते तथा बाह्य में तदनुकूल वेष रखते हैं, किन्तु अन्तरंग में कपट का भाव रखते हुए धर्म मार्ग में जानेवाले उन प्राणियों को व्यर्थ ही कुमार्ग में भटका देते हैं। यह संसारी प्राणी मोह मदिरा पिए हुए वैसे ही इन्द्रियों का दास है। उनकी आकांक्षाओं को पूरा करते-करते उसका जीवन ही समाप्त हो जाता है। विषयपूर्ति के लिए ही उसे देश-देश, वन-वन छान डालने पड़ते हैं। वह बड़ा से बड़ा जोखिम भी प्राणों की बाजी लगाकर उठा लेता है। उसके इस कार्य में यदि कोई विध्नकारक हो तो उसे वैरी समझकर यह उससे कषाय करता है और कषाय के निमित्त से भी अनेकानेक पाप करता है। इन सब बातों से वह भी इतना परेशान है कि उसे स्वयं कुछ मार्ग नहीं सूझता। वह चाहता है कि मैं उलझनों को सुलझा लूँ, वह परन्तु जब सुलझाने जाता है तब एक न एक नई उलझन में फँस जाता है। इसका कारण यह है कि उसने विपरीत मार्ग ग्रहण कर रखा है। दुःखनिवृत्ति का जो मार्ग है वह उसने नहीं पाया और दुःखोत्पादक मार्ग को ही सुख का मार्ग समझकर भटक रहा है। पूर्व को जाने की अभिलाषा करने वाला यदि मार्गभ्रष्ट होकर पश्चिम या उत्तर को चला जावे तो निरन्तर प्रयत्न और परिश्रम करने पर भी वह अपने ध्येय को नहीं पा सकता, इसी तरह विषय कषाय से परिपूर्ण मार्ग में भ्रमण करते हुए प्राणी को बहुत प्रयत्न करते हुए हो गया पर सुख नहीं मिला। शान्ति की इच्छा रखने वाला यह प्राणी जब दुःख दूर करनेवाले मार्ग की खोज में किसी मार्गदर्शक को ढूँढ़ता है तब अनेक वञ्चक उस विरक्त पुरुष का धन बटा लेने की गरज से परम-पवित्र धर्मोपदेश के मार्ग को मलिन करते हुए अपने को सद्गुरु घोषित करते हुए उसे भटका देते हैं। वे सारे विश्व के प्राणियों को लिए धर्मोपदेशक का जामा पहिनकर भी स्वार्थमय उपदेश देकर विश्व का अहित करते हैं। इसीलिए उन्हें विश्व का वैरी कहना युक्तिसंगत है। जब तक यह मनुष्य उनको पहिचान कर उनका संसर्ग न छोड़ेगा तक तक उसे सुमार्ग प्राप्त न होगा। सुमार्ग प्राप्त करने की अभिलाषा करनेवाले को सद्गुरु की पहिचान करनी होगी। सद्गुरु वही है जिसे स्वयं विषयाभिलाषा न हो, कषायवान् न हो, हिंसा के कारणभूत आरम्भ व परिग्रह से सर्वथा रहित हो तथा ज्ञान ध्यान व तपस्या करना ही जिसका एकमात्र कर्तव्य हो। वही विश्व को शान्तिमय मार्ग बता सकता है, ऐसा जिसने निश्चय कर लिया है वही पाक्षिक श्रावक है।।५।। प्रश्न-देवस्य विषये कीदृग्भावोऽस्ति पाक्षिकस्य मे? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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