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________________ नैष्ठिकाचार ३१३ ७-नवमी प्रतिमा में धनधान्यादि परिग्रह जो अभी तक थे आरंभ त्याग करने पर उनकी निरर्थकता स्वयं अनुभव में आने लगती है। अतः उसका त्याग होने से त्यागवृत्ति के हेतु जिस अतिथिसंविभाग व्रत को धारण किया था वह परिग्रह त्याग से पूर्ण होता है, अतः अब यह आहार दान छोड़कर अतिथि की अन्य सेवायें ही करता है।अतः अतिथिसंविभागवत अपनी मर्यादा यहाँ पूर्णकर लेता है। अब यह स्वयं अतिथि बनने योग्य हो रहा है। ८-दशवी प्रतिमा में आरंभादि संबंधी अनुमति भी नहीं देता, अतः बिना प्रयोजन के कार्य बन्द करने के लिये उनके पाप से बचने के लिए जो अनर्थदण्ड व्रत किया था वह यहाँ पर अपना अन्तिम रूप पाजाता है। अतः इस व्रत की पूर्णता के लिए यह प्रतिमा धारण की गई है। इस प्रकार द्वितीय प्रतिमा के सम्पूर्ण १२ व्रत विभिन्न प्रतिमाओं में अपनी-अपनी वृद्धि करते-करते महाव्रत में प्रविष्ट होने योग्य बनते हैं। ___९-ग्यारहवीं प्रतिमा में बारह व्रतों की विशेष शुद्धिपूर्वक मुनि पदारोहण की पूर्ण तयारी हो जाती है। यहाँ श्रावकधर्म की मर्यादा समाप्त है। श्रावक के बारह व्रतों में समाधिमरण भी एक व्रत किन्हीं आचार्यों ने गिनाया है। उनके मत से बारह व्रत इस प्रकार गिनाए गए हैं, पंचाणुव्रत के साथ दिग्व्रत, देशव्रत, अनर्थदण्डत्याग, भोगपरिमाणव्रत, उपभोगपरिमाणव्रत, अतिथिसंविभाग और समाधिमरण। किसी-किसी ग्रन्थकार ने १२ व्रतों के बाद समाधिकरण को अलग से व्रत न मानकर भी उसकी आवश्यकता प्रत्येक व्रती या अव्रती के लिए भी बतलाई है। वास्तव में समाधिकरण एक ऐसी क्रिया है जिसकी इच्छा अव्रती भी करता है। वह भी चाहता है कि मेरा मरण उत्तमप्रकार से धर्मपूर्वक हो। समाधिमरण करनेवाले को पाक्षिक और नैष्ठिक की तरह ‘साधक ऐसा तीसरा स्वतंत्र नाम दिया गया है। प्रत्येक प्रतिमारोही मरण के समय कषायों पर विजयकर व विषयों का त्यागकर अपने में शान्ति या समाधि उत्पन्न कर मरण को प्राप्त करता है। इस आत्मसाधना के कारण वह साधक पद को प्राप्त करता है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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