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श्रावकधर्मप्रदीप
मरणकाल किसी भयानक उपसर्ग या बीमारी आदि के कारण भी आ सकता है। उस समय पर सम्हाल करके समाधि का साधन कर लेना कठिनतर कार्य है। जिन्होंने इसकी जीवनकाल में भावना की है उन्हें कठिन नहीं है। वे प्रतिक्षण उसकी कामना रखते हैं, अतः उस समय को देखकर घबड़ाते नहीं हैं। तत्काल अन्नाहार का त्याग कर निष्कषायभावपूर्वक शरीर त्याग करते हैं। आयु के पूर्ण होने का नाम मरण है। ऐसा मरण प्रतिसमय होता है, क्योंकि आयु का गलना प्रतिसमय हो रहा है। यह मात्र व्यवहार है कि आयु के क्रमशः जो निषेक गलते जाते हैं उसे हम जीवन ही कहते हैं, और अन्तिम निषेक की समाप्ति को मरण कहते हैं। यथार्थ में तो आयु के निषेक का खिरना ही मरण है। आयु के निषेक प्रति समय क्षय होते हैं, अतः प्रतिसमय ही मरण है। तब हम समाधि (समभाव ) की प्रतिसमय वांछा और उसके प्रति प्रयत्न करने वाले को समाधिकरण का व्रत है, ऐसा कह सकते हैं । इसी अपेक्षा से इसकी गणना १२ व्रतों में की गई है। मरण के समय सबसे ममत्व त्यागकर द्वादश भावनाओं का विचार करना तथा आरंभ परिग्रह को सर्वथा त्याग धर्मध्यान में अपना उपयोग लगाना, सबके प्रति उत्तम क्षमा का भाव रखकर सबसे क्षमा याचना करना, किसी के प्रति राग, द्वेष न करना और किसी वस्तु की वांछा नहीं रखना यह कर्तव्य होता है। इस प्रकार जिनका मरण होता है उनकी कुगति नहीं होती। अव्रती श्रावक से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक मुनिपद में भी अपनी-अपनी योग्यता तथा प्राप्त द्रव्य, क्षेत्र काल और भाव के अनुसार यह व्रत पाया जाता है।
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इस व्रत के भी ५ अतिचार हैं जिनसे बचना चाहिए। वे ये हैं - ( १ ) रोगादि से या उपसर्ग से या वेदना से घबड़ाकर शीघ्र मरण की इच्छा करना, (२) सेवा करनेवाले व्यक्तियों के मोह से, उनकी सेवा की प्रसन्नता से अथवा अन्य कोई विषय-वासना से ऐसा विचार करना कि मरण न आवे, जितने काल जीवित रह सकें उतना अच्छा, ऐसी वांछा करना, (३) अपने कुटुम्बीजन, स्त्री, पुत्रादि में, मित्रादि में प्रीतिभाव रखना, उनके मोह का त्याग न करना, (४) पहले जो विषय-भोग किए हैं उनकी बार-बार याद कर चित्त को विषयानुरागी बनाना, (५) व्रतों का फल आगे स्वर्गादि संपत्ति रूप हो व अनेक विषयों के उत्तमोत्तम साधन मिलें, ऐसी वांछा करना ये पाँच अथवा इसी प्रकार के अन्य दोष समाधि मरण के अतिचार हैं।
इनसे विरक्त हो अपने उद्देश्य को सामने रखकर, लक्ष्य भ्रष्ट न हो, प्रयत्नपूर्वक समाधि लेना समाधिमरण है। यह व्रतों का सार है। इसी समाधि के अर्थ ही व्रतों का
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