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________________ ३१२ श्रावकधर्मप्रदीप हैं। कहाँ कौन प्रतिमा में कौन-कौन व्रत पूर्ण होते हैं इस संबंध में मूलग्रन्थकर्ता श्री १०८ आचार्य कुन्थुसागर महाराज ने कुछ गद्य वाक्यों में किया है। उनका यहाँ वर्णन किया जाता है। वे वाक्य ये हैं१- सामायिकप्रतिमायामेव सामायिकं निर्दोषतां याति। २- प्रोषधोपवासव्रतपूर्णता प्रोषधोपवासप्रतिमायां भवति। ३- पञ्चमप्रतिमायां भोगोपभोगव्रतपूर्णता भवति। ४- अथ षष्ठप्रतिमायां भोगोपभोगव्रतपूर्णता भवति। ५- भोगोपभोगव्रतस्य संपूर्णतया पूर्णता सप्तमप्रतिमायां भवति। ६- अष्टमप्रतिमायामारम्भत्यागः पञ्चाणुव्रतस्य शुद्धता विशेषरूपेण स्यात् । ७- नवमप्रतिमायां परिग्रहत्यागतोऽतिथिसंविभागवतस्य निरतिचारता स्यात् । ८- अथ दशमप्रतिमायां अनुमतित्यागादनर्थदण्डव्रतं निरतिचारतां याति। ९- अथोदृिष्टाहारत्यागात् सप्तशीलानां पूर्णता भवति तथाणुव्रतत्वमपि महाव्रतत्वं याति। इनका तात्पर्य इस प्रकार है कि१-सामायिकव्रत यद्यपि द्वितीय प्रतिमा में ही धारण किया था पर उसकी पूर्णता तृतीय प्रतिमा में होती है। यहाँ सामायिक व्रतरूप हुआ। यद्यपि सामायिक ही एक मात्र चारित्र है, उससे ही सर्व कर्म निर्जरा होती है और इसलिए तृतीय प्रतिमा में उसकी पूर्णता नहीं होती। उसका आचरण तो मुनिजन भी करते हैं। उनके अन्य सब प्रयत्न इसे प्राप्त करने के लिए हैं, तथापि श्रावक पद के योग्य यथासमय नियमित सामायिक करना इतना व्रत मात्र इस प्रतिमा में पूर्ण होता है। २-इसी तरह प्रोषधोपवास व्रत का प्रारम्भ भी द्वितीय प्रतिमा में था पर पूर्णरीति से गृहस्थ योग्य यह व्रत चतुर्थ प्रतिमा में पूर्ण होता है। ३,४,५-पाँचवीं में भोजन सम्बन्धी, छठी में उपभोग संबंधी तथा सातवीं में पूर्णतया भोगोपभोग संबंधी सामग्री का भोगोपभोग की दृष्टि से त्याग हो जाता है और यह भोगोपभोग परिमाणव्रत पूर्ण होता है। ६-आठवीं प्रतिमा में आरंभ व्यापार का त्याग होने से अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहपरिमाण ये पाँचों ही अणुव्रत उज्ज्वलता धारण करते हैं। इन व्रतों में दोषोत्पन्न होने योग्य परिस्थिति ही समाप्त हो जाती है। दिग्वत देशव्रत सभी आरंभादि कार्य के अभाव से यहाँ पूर्णता प्राप्त करते हैं। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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