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नैष्ठिकाचार
आहार के बाद भिक्षु अपने संघ में वापिस आकर गुरु से सब निवेदन करता है। यदि कोई त्रुटि आहार क्रिया में जाने के समय से आने के समय तक के मध्य में हुई तो उसे स्पष्ट निवेदन करता है और उनके द्वारा दिये गये प्रायश्चित्त को स्वीकार करता है। भोजन वृत्ति दिन में एक बार ही करने का इसका नियम है।
क्षुल्लक गुरु से दीक्षा लेते हैं, उनके सन्निधान में रहते हैं। उनकी तथा अन्य संघ के साधुओं की हर प्रकार से वैयावृत्य करते हैं। साधु-सेवा ही इनका व्रत है। स्वाध्याय द्वारा सदा अपने ज्ञान की वृद्धि करते हैं, त्रिकाल आत्म-चिन्तन द्वारा अपने को सन्मार्ग पर स्थिर रखने का प्रयत्न करते हैं। यदि दीक्षादायक साधुजन न हों, और इस व्रती ने भगवान् तीर्थंकर की प्रतिमा या आगमग्रंथ के सम्मुख स्वयं दीक्षा ली है तो भी उसे अन्य व्रती प्रतिमाधारियों के साथ ही रहना चाहिये। स्वतंत्र विचरण नहीं करना चाहिए। स्वतंत्रता से अकेले भ्रमण करने का तो साधु को भी निषेध है। अकेला विहार करने वाले की सत्संगति के अभाव में, और परीषह उपसर्ग के विजय न कर सकने की स्थिति में मार्ग से च्युत हो जाने की संभावना आचार्यों ने की है, अतः संघ में रहने का आदेश दिया है। संघ में रहते हुए अन्य व्रतियों की धर्म - सेवा करना वह अपना कर्तव्य समझता है। रोगी अवस्था में, असहायावस्था में और पीड़ितावस्था में उनकी शारीरिक सेवा भी करता है। धर्मसाधन में सहायता करता है। समाधिमरणादि अवस्था में, अपने धर्म-साधन की क्रियाओं में हानि हो जानेपर भी समाधिगत साधु या श्रावक की सेवा कर उसे समाधि में स्थिर करता है। यह कर्तव्य वह उस काल में सर्वश्रेष्ठ मानता है। क्षुल्लक व्रती की यह प्रक्रिया है । २११ ।
किमैलकस्य चिह्नं मे वर्तते सिद्धये वद ।
हे गुरुदेव ! ऐलक का क्या लक्षण है, मेरी कल्याणसिद्धि के लिए कृपाकर कहे(वसन्ततिलका)
कौपीनमात्रवसनो करपात्रभोजी स्थित्वासनेऽशनविधानपरः प्रकामम् ।
स्वर्मोक्षमार्गनिरतो विरतोऽन्यकार्यात्
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स्यादैलको निजरतः प्रतिमाप्रयोगी ।। २१२ ।।
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कोपीनेत्यादिः- यः किल एकादशप्रतिमाधारी प्रवृद्धवैराग्यः साहसिकः स्वदेहस्थितं खण्डवसनमपि परित्यजति, करपात्र एव भुंक्ते । भोजनपात्रमपि परित्यजति । श्रावकगृहे
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