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________________ ३१० श्रावकधर्मप्रदीप तत्पात्राणामप्युपयोगः यस्य नोचितः स च ऐलकः स्यात् । एषोऽपि पद्मासनेन अर्धपद्मासनेन सुखासनेन वा स्थित्वा भुक्ते। क्षुल्लकवदेव प्रतिग्रहादिकमपेक्ष्य आहाराय गच्छति। प्रतिमायोगं धारयति, न तु दिवसे। परीषहोपसर्गान् जयति। न तस्य भीतिस्तथापि स्वप्रयत्नतः परीषहान् प्राप्तुं न यतते। कटिसूत्रं कौपीनञ्च धारयति। शीतस्य दंशमशकस्य च समागतां बाधां ग्रीष्मे प्रस्वेदादि निमित्तेन संप्राप्तां बाधाञ्चामन्यमानोऽन्यानप्युपसर्गपरीषहान स्वयमेव समागतान् नावगणयति किन्तु तान् जयति। एष द्वित्रिचतुर्यु मासेषु लोचमेव करोति न कर्तर्यादिना केशानपनयति। न चास्मिन् पदे स्यादनेकभिक्षानियमः। एकभिक्षानियम एवात्र स्वीकृतः। वर्णत्रयेष्वेतत् पदं स्यान्न शूद्रेषु। मुनेर्लधुभ्रातुरस्य पञ्चाणुव्रतानि महाव्रतसमीपतां यान्ति। ईर्यासमित्यादीन् पालयति गुप्त्यांदीनपिच भजते। प्रथमप्रतिमाग्रहणसमये यः संसारदेहभोगैतिरक्ततायाः परिणामः सञ्जातः स एवात्र परिपूर्णतां याति। एवम्प्रकारेण क्रमशः प्रतिमारोहणेन अणुव्रतानां महाव्रतेष्वारोपणप्रकिया पूर्णतां याति।२१२। इति श्रीकुन्थुसागराचार्यविरचिते श्रावकधर्मप्रदीपे पण्डितजगन्मोहनलालसिद्धान्तशास्त्रिकृतायां प्रभाख्यायां व्याख्यायां च पञ्चमोऽध्यायः समाप्तः। क्षुल्लक व्रती वैराग्य परिणामों की वृद्धि के कारण साहसी होकर ऐलक वृत्ति को प्राप्त होता है। इनकी आर्यसंज्ञा है। ये अपने केशों का उत्पाटन दो, तीन, या चार मास में अपने हाथों से करते हैं। कैंची आदि का उपयोग न स्वयं करते हैं और न अन्य को करने देते हैं। खण्ड वस्त्र का भी त्याग कर मात्रकटिसूत्र और कौपीन (लंगोटी) धारण करते हैं। शीत डांस मच्छर वर्षा और ग्रीष्म की सम्पूर्ण बाधाएँ अपने खुले खरीर पर झेलते हैं। कोई भी परीषह और उपसर्ग आजाय तो उसके सहन करने में कायरता नहीं दिखाते, प्रीतिपूर्वक सहन करते हैं। तथापि परीषह उपसर्गों की प्राप्ति का प्रयत्न नहीं करते। घोर तपश्चरण आदि को धारण करने की शक्ति को उत्पन्न कराने का प्रयत्न करते हैं, पर वर्तमान अवस्था में वैसी शक्ति के अभाव में घोर तपस्या नहीं करते। प्रतिग्रहादि नवधा भक्तिपूर्वक श्रावक आहार दे, तो बैठकर अपने करपात्र में ही लेते हैं। भोजन का पात्र ये अपने पास नहीं रखते, और न श्रावक के पात्रों में भोजन करते हैं। अपने हाथ पर जो आहार श्रावक दे दे मात्र उसे उदरस्थ करते हैं। आराम से स्वाद लेकर आहार ग्रहण नहीं करते। न अतिशीघ्र ही भोजन करते हैं। ये एषणा समितिपूर्वक देख शोधकर आहार को लेते हैं। आहार सरस है या नीरस है, स्वादिष्ट है या बेस्वाद इन बातों पर उनका ध्यान नहीं जाता। केवल इतना ध्यान रखते हैं कि आहारशुद्ध है, निर्जीव (प्रासुक) है, कोई अन्तराययोग्य वस्तु का उसमें समागम नहीं है। स्वाध्याय, ध्यान, धर्मोपदेश और धर्मप्रभावना आदि कार्यों में अपने समय का सदुपयोग करनेवाले साधु संघ में ही रहते हैं, अकेले नहीं। रात्रि में मुनि की तरह नग्न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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