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________________ श्रावकधर्मप्रदीप देने को तैयार हुआ हूँ। मेरे घर पर आपकी भिक्षा के योग्य शुद्ध व शास्त्रोक्त नियमों के अनुसार अभक्ष्यादि दोषरहित आहार व प्रासुक जल है। आप कृपाकर स्वीकार करें। इस प्रार्थना पर भिक्षु भोजनशाला में प्रवेश करता है और अपने नियमों के अनुसार आहार को ग्रहण करता है। भिक्षु इष्ट और अनिष्ट आहार में राग द्वेष या संकल्प विकल्प नहीं करता किन्तु अपने उदर की पूर्ति हेतु प्रेम से उसे ग्रहण कर शरीर की आवश्यकता पूरी करता है। अन्न और आहार के बिना शरीर नहीं टिकता, परिणाम संक्लिष्ट हो जाते हैं, धर्म साधन नहीं होता इसलिए भिक्षु आहार हेतु जाता है। शरीर धर्म साधन का कारण है, इसलिए उसे अन्न पानी देकर स्थिर रखना है और उसके द्वारा धर्म साधन करता है। इतना उद्देश्य लेकर भिक्षु इस वृत्ति को अंगीकार करता है। यदि बिना आहार के भी शरीर चलता है तो उस दिन उपवास करता है। अष्टमी चतुर्दशी को तो नियमतः उपवास करने का इन्हें व्रत है।' प्रौषधोपवास व्रत यहाँ उत्कृष्ट दरजे से पालन किया जाता है। इच्छा होने पर और श्रावक के घर तक जाने पर भी यदि विधिवत् आहार न प्राप्त हो या कोई प्रतिग्रह न करे अथवा आहार में अन्तराय आ जाय तो भिक्षु उस दिन भी उपवास अवश्य करता है। वह केवल उसी अवस्था में आहार ग्रहण करता है जब शरीर के लिए उसकी अत्यन्त आवश्यकता का अनुभव करता है। वह वहाँ ही आहार लेता है जहाँ पर उक्त नवधा भक्ति के द्वारा सप्तगुण सहित श्रावकजन अपनी हार्दिक श्रद्धा पूर्वक, संतोष रखते हुए उदारता से, विनयपूर्वक व धैर्यपूर्वक शक्त्यानुसार आहार देते हैं। आहार करने के बाद अपने भोजन के पात्र वह स्वयं स्वच्छ करे ऐसी जनाज्ञा है। ऐसा नियम इसलिए है कि इसे कोई अहंकार भाव जागृत न हो और श्रावक की कोई क्रिया असंयम रूप से इसके लिए न हो पाए। श्रावक भक्ति में अथवा अन्य कारणों से उस भाजन के स्वच्छ करने में देर करे और इतने में आहार के करने के लोभ से मक्खी आदि उसमें पतन कर प्राण रहित हो जाय तो यह महान् असंयम होगा ऐसा विचार कर भिक्षु स्वयं उसे माँजकर स्वच्छ करे। यदि श्रावक तत्काल ही संयम रक्षा करते हुए उसे स्वच्छ कर देना चाहे तो भी आपत्ति नहीं है । किन्तु यदि क्षुल्लक यह विचारे कि श्रावक का कर्तव्य है कि वह मेरे जूठे बर्तन मांजे, यह तो उसका सौभाग्य है, मैं तो महत्त्वशाली पद पर हूँ, इसे मेरी सेवा करनी ही चाहिए, ऐसे अहंकार के वशीभूत होकर श्रावक से अपना बर्तन माँजने को कहे, तो व्रती को दोष है। ३०८ १. कुर्यादेव चतुष्पर्व्याभुपवासं चतुर्विधम् - सागारधर्माभृत | २. स्वयं यतेत चादर्यः परयाऽसंयमो महान् । - वहीं, ७ / ४४ । For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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