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________________ नैष्ठिकाचार ३०७ उस पद से अलगकर देना श्रेयस्कर और प्रभावनांग का पोषक है। पर इसका प्रयोग करने का अधिकर या तो दिगम्बर गुरु को है या उनके अभाव में विवेकपूर्वक क्रिया करनेवाले अन्य व्रती श्रावक संघ को है। जो संसार, देह और भोगों से विरक्त होकर पांचों पापों से उन्मुक्त होने के लिए लालायित हैं, किन्तु शारीरिक और मानसिक कमजोरी के कारण उनसे अबतक छूटे नहीं है, छोड़ने के लिए प्रयत्नशील हैं वे ही इस पद पर आसीन होते हैं। इस तरह एकभिक्षानियम और अनेक भिक्षानियम दोनों ही श्रावक इन्द्रिय विजय के पवित्र उद्देश्य को विस्मरण न करते हुए आहार की वृत्ति को पूरा करते हैं। कुछ ग्रंथकार ऐसा लिखते हैं कि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और स्पर्शशूद्र ऐसे ४ वर्ण के लोग इस पद को धारण कर सकते हैं। उनमें तीन वर्ण तो एकभिक्षानियमवाले होते हैं। कमण्डलु या भोजन हेतु बर्तन रखते हैं। जो अनेक भिक्षानियम हैं उसे स्पर्श शूद्र वर्ण वाले धारण करते हैं। वे (लोहे का) कमंडलु और भोजन पात्र रखते हैं। कई ग्रन्थकार सभी वर्गों के लिए दोनों प्रकार के एक से नियम हैं ऐसा वर्णन करते हैं। ___ दोनों ही प्रकार के क्षुल्लक उद्दिष्टाहार के त्यागी हैं। इसलिए आहार के समय श्रावकों के घर स्वयं जाते हैं। वहाँ या तो मौन पूर्वक एक क्षण बाहर खड़े हो जाते हैं अथवा धर्मलाभ हो ऐसा आशीर्वचन कहकर निकल जाते हैं। इन दोनों अवस्थाओं में एक क्षण वहाँ खड़े रहने से तात्पर्य इस बात का है कि जो श्रावक गृह के भीतर है अथवा अन्य कार्य में संलग्न है उसे उस भिक्षु के आने का ज्ञान हो जाय। उसका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर भिक्षु फिर वहाँ बिना बुलाए नहीं ठहरता। श्रावक उन्हें देखकर प्रतिग्रह करता है, अर्थात् अपने गृह आने की प्रार्थना करता है और आहार पानी भिक्षु के योग्य उसके घर है तथा उसकी इच्छा दान की है यह व्यक्त करता है, इस क्रिया का नाम प्रतिग्रह है। गृहस्थ की प्रार्थना पर भिक्षु ठहर जाता है और उसकी पुनः प्रार्थना पर उसके गृह में प्रवेश करता है। गृहस्थ उसे उच्चस्थान पर बैठाता है, पैर धोता है, सम्मान करता है, नतमस्तक होता है और यह प्रतिज्ञा करता है कि आपको आहार देने में मेरे मन-वचन-काय से विशुद्धि है। यह नवधा भक्ति इस बात की सूचक है कि कोई कपट से या किसी दबाव से अथवा केवल लोक लाज से या लोकापवाद के भय से मैं बिना अपनी इच्छा के आहार देने को प्रस्तुत नहीं हुआ हूँ। मैं हर्ष और पवित्र वृत्ति से आहार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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