SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०६ श्रावकधर्मप्रदीप निर्विचिकित्सा-घृणा और द्वेष के अभाव-सूचक हैं तथा अमूढदृष्टि अंग-मोह के अभाव का प्रकाशक है। ये चार उसकी श्रद्धा तथा राग द्वेष मोह के अभाव की सूचना देते हैं तथा उपगूहन, वात्सल्य स्थितीकरण और प्रभावना ये अन्तिम गुण हैं। व्रत से च्युत होनेवाले व्यक्ति के साथ इन चारों का क्रमशः उपयोग करना चाहिए। सर्व प्रथम तो . उपगूहन अंग का पालन करे। यह विचार करे कि पापोदय से आत्मा व्रतादिकों में शिथिल हो जाता है, अथवा अज्ञान या शारीरिक व मानसिक कमजोरी से ऐसा होना संभव है, अतः व्रतियों का अपवाद न हो इसलिए इसकी निन्दा करने या मात्र अलोचना करने में लाभ नहीं है, इसके अवगुण प्रकाशित नहीं करना चाहिए। इस प्रकार उपगूहन अंग का पालन करनेमात्र से यदि कार्य सिद्धि न हो तो भी उस व्यक्ति से घृणा न कर उससे धर्मवात्सल्य कर वात्सल्य अंग का पालन करे तथा वह व्यक्ति धर्म में पुनः स्थिर हो जाय इसका प्रयत्न कर स्थितिकरण अंग का पालन करें। इस प्रकार से कार्य करनेवाला व्यक्ति ही धर्म की प्रभावना में समर्थ होता है और प्रभावनांग का पालक है। अवगुण छिपाने का अर्थ अवगुण और अवगुणी का पालना नहीं है और न वह उपगूहन अंग है। छिपाने का तात्पर्य मात्र इतना है कि यदि किसी अज्ञानता से या कर्मोदय से कभी किसी से पद विरुद्ध कार्य हो गया है तो निन्दात्मक पद्धति से वह दूर नहीं किया जा सकता। निन्दा, आलोचना और अपवाद, उसके सुधार के उपाय नहीं हैं। सुधार का सच्चा उपाय है उसे उसके पद की महत्ता बताकर गिरने से बचाना। अपने दोष के जाननेवाले से लज्जाशील व्यक्ति दबता है, उच्छृङ्खलता नहीं करता और इसीलिए उसकी इस वृत्ति का लाभ इस रूप में उठाया जा सकता है कि उसे पुनः उसके पद में प्रतिष्ठित कर दे। उसे यह विश्वास हो जाता है कि अमुक व्यक्ति बहुत सज्जन है और मेरा हितैषी है, क्योंकि मेरा दोष जानकर भी अपवाद न कर मुझे दोष दूर करने की सम्मति देता है और मेरी प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए प्रयत्नशील है। ऐसे विचार से वह सन्मार्ग पर पुनः आ जाता है। यह बहुत बड़ी सेवा है। जिस महापुरुष से वह बन सके वह पूज्य पुरुष है। प्रारम्भ के चार अंग उस सम्यग्दृष्टि की व्यक्तिगत महत्ता के प्रतिपादक है और अन्तिम चार धर्मात्माओं के प्रति उसके सद्व्यवहार को प्रकट करते हैं। ___ जो व्यक्ति प्रारम्भ से ही छद्मवेषी हैं व्रत की आकांक्षा से इस मार्गपर नहीं आए। लज्जाशीलता जिनमें नहीं है। यहाँ लज्जाशीलता का अर्थ पाप करने में लज्जा आने से हैं, वह भूषण हैं। जो प्रयत्न करने पर भी सन्मार्ग पर नहीं आते। अपने दुराचार से पद को लांक्षित करते हैं। जिन्हें मार्ग पर लाने के सब उपाय व्यर्थ चले गये हों उन्हें बलात् Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy