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________________ २७८ श्रावकधर्मप्रदीप बाह्यरूप को बनाए रखते हैं और अन्तरंग में उससे रहित हो जाते हैं। यह मायाचार पूर्वक क्रिया अव्रत की क्रिया है। इतना ही नहीं, मायाचार के कारण वह दुर्गति का भी कारण है। अन्यधर्मात्माओं की ठगी का कारण होने से धर्म का मार्ग भ्रष्ट करने के कारण वह नरकादि दुर्गतियों का भी कारण है। अतः व्रत के उद्देश्य को पूर्ण करते हुए आगमोपदेशित पद्धति के अनुसार प्रोषधोपवास करनेवाला चतुर्थ प्रतिमा का धारी है।।२०४॥ प्रश्न :- पञ्चमप्रतिमाचिह्नं किमस्ति मे गुरो वद। हे गुरुदेव! पञ्चम प्रतिमा का क्या स्वरूप है, कृपाकर कहें (वसन्ततिलका) अग्न्यादिपाकरहितस्य फलादिकस्य कार्यं न सेवनमितीह निजात्मविद्भिः। आत्मा स्वयं हनुपमो विमलो यतः स्यात् स्वस्थोमनोक्षविजयी कृतकृत्यभाक्सः ।।२०५।। अग्नीत्यादि:- यत् सचित्तं पत्रादिकं फलादिकं वा अग्न्यादिपाकरहितं अप्रासुकमित्यर्थः तस्य निजात्मविद्भिः सेवनं कदापि न कार्यम् । अग्न्यादिसंस्काररहितानि जलानि फलानि पत्राणि पुष्पाणि मूलानि च सचित्तानि भवन्ति। तेषु स्थावरप्राणिनां सद्भावो विद्यते। यद्यपि श्रावकेण किल त्रसघातस्यैव त्यागः कृतः न स्थावरघातस्य तथापि दयापरस्य किलास्य वर्तते एवं परिणामः यत् सचित्तं द्रव्यं न भोक्तव्यं अचित्तेनैव स्वोदरपूरणकरणं श्रेयः। सचित्तेषु पुष्पाणां त्यागः मधुव्रत एव कृतः। कन्दानां मूलानाञ्च बहुस्थावरघातत्वात् अनन्तनिगोदाश्रयत्वाच्च अभक्ष्यत्याग एव त्यागः कृतस्तथापि उदाहरणरूपेण सचित्तेषु तेषामत्र चर्चा कृता। प्रत्येकानाम्फलानां तद्रूपाणां पत्रादीनाञ्च चतुर्थप्रतिमापर्यन्तं ग्रहणमासीत् ततस्तेषां पञ्चमप्रतिमायां त्यागो विधीयते। भोगोपभोगेष्वेवं विवेककरणेन तव्रतस्याभिवृद्धिर्भवति। इन्द्रियविषयविजयेन स्वात्मा विमलीभवति। निजात्मनः समीपतां याति व्रती। स्वाराधितव्रतसम्पत्त्यभिवृद्धितः स आत्मा अनुपमो विमलः स्वस्थो मनोक्षविजयी कृतकृत्यश्च भवति।।२०५।। वक्ष से पृथक् होने पर भी पत्र, फल, पुष्प, कन्द और मूल आदि सचित्त (एकेन्द्रिय जीव सहित) होते हैं। इनमें कन्द, मूल और पुष्पों का त्याग पूर्व में अभक्ष्य त्याग में हो चुका है तथापि सचित्त के उदाहरण स्वरूप उनके नाम गिनाए हैं। चतुर्थ प्रतिमा तक प्रत्येक (जिस वनस्पति में एक शरीर का एक ही एकेन्द्रिय स्वामी है) वनस्पति रूप फलादि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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