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नैष्ठिकाचार
उसके बाद गरम जलमात्र की विधि बताई गई है। अथवा रात्रि भोजन त्याग में चतुर्विधाहार का त्याग न कर सकनेवाले को तीन प्रकार के आहार के या दो प्रकार के आहार के या एक प्रकार के ही अन्नाहार के त्याग की चर्चा है। उसका प्रयोजन इतना ही है कि अन्नाहारत्यागी रात्रि में अन्य पदार्थों का ही उपयोग कभी-कभी करेगा। अन्नाहारी तो नित्य आहार करेगा। अन्न तो प्रधान भोजन है। यदि वह दिन में नहीं किया गया तो वह रात्रि में नियमित चलेगा जो ठीक नहीं। यदि दिन में अन्नाहार द्वारा शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति हो गई है तो फिर रात्रि में आहार ग्रहण न करे और धीरे-धीरे संपूर्ण आहार के त्याग का अथवा दो तीन प्रकार के आहार के त्याग का प्रयत्न करेगा।
उक्त दोनों अवसरों से प्रतिमाधारी के पर्व के दिन का आहार त्याग दूसरे प्रकार का है। नहीं तो अनशन, अवमौदर्य और रस त्याग आदि का विधान ही क्यों है, अतः ये नए प्रकार के त्याग, त्याग के उद्देश्य को पूरा नहीं करते, अतः ग्राह्य नहीं हैं। विधि विहित नहीं हैं। अपितु त्याग के मार्ग की अपेक्षा रसनेन्द्रिय के विषय में प्रवृत्ति कारक होने से अग्राह्य हैं।
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प्रथम तो कल्पित प्रवृत्ति करना उचित नहीं है और यदि करना भी हो तो वह उस प्रतिमा या व्रत के उद्देश्य को पूरी करती हो तभी वह ग्राह्य हो सकती है, अन्यथा वह एक आत्मवञ्चना होगी ।
इसी प्रकार जो लोग मात्र चतुर्विधाहार का त्याग कर देते हैं और क्रोधादि पर विजय प्राप्त नहीं करते, इन्द्रिय विषयों से विरक्ति नहीं करते, व्यापार या आरंभादि की प्रवृत्ति बराबर बनाए रखते हैं वे भी व्रत के उद्देश्य को पूरा नहीं करते । व्रती को हर प्रकार का प्रयत्न कर अपनी प्रवृत्ति को उस रूप में लाना चाहिए जिससे कि उसकी वैराग्य भावना को प्रोत्साहन मिले, परावलम्बन छूट जाय, स्वावलंबन की वृद्धि हो । यही मुक्ति का मार्ग है, अन्यथा वह संसार का ही मार्ग होगा।
जैनधर्म निवृत्तिप्रधान धर्म है। निवृत्ति ही इसका उद्देश्य है। प्रवृत्ति का उपदेश यहाँ कदाचित् भी नहीं है। यदि कहीं है भी तो निवृत्ति मार्ग पर बढ़ने के लिए महान् प्रवृत्तियों को रोककर अल्प प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया गया है। अतः व्रती को यह सदा स्मरण रखना चाहिए कि हमारी वृत्ति और हमारे कार्य उक्त उद्देश्य की पूर्ति की ओर जा रहे हैं या नहीं। यदि जा रहे हों तब तो उसके व्रत निर्दोष पलते जायँगे और यदि नहीं तो वह क्रमशः अव्रती दशा को प्राप्त होगा। ऐसे व्यक्ति स्वाभिमान के वश होकर व्रत के
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