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________________ २७६ श्रावकधर्मप्रदीप वह उस दिन कितना भी घोर उपसर्ग आवे क्रोध नहीं लाता। कितनी ही हानि हो किसी को धोखा नहीं देता। कितना भी लाभ का सुयोग हो लोभ नहीं करता। भोजन मात्र का परित्याग करने से अथवा रसरहित भोजन अंगीकार करने से रसनेन्द्रिय के विषय से दूर रहता है। तेल, इत्र, पुष्प, केसर, धूप आदि घ्राण इन्द्रिय के विषयों का उपयोग नहीं करता। विभिन्न प्रकार के दृश्य, नाटक, खेल तमाशे नहीं देखता। अनेक प्रकार के नाटक संगीत वाद्य नृत्यादि जो कर्णेन्द्रिय के लिए मनोरम विषय हैं उनके सुनने का त्याग करता है। अपनी मानसिक वृत्ति को वश में रखकर धर्मध्यान में लगाता है। स्वाध्याय, पूजन, धर्मोपदेश, धर्मश्रवण, धर्मध्यान इतना ही उसका कार्यक्रम उस दिन का है। उसके सम्मुख पुत्र हो या मित्र हो या शत्रु हो सब पर समव्यवहार करता है। किसी से रागद्वेष नहीं करता। मोह का त्याग करता है और पूर्ण ब्रह्मचर्य पूर्वक आत्मस्वरूप के प्राप्त करने की चिंता रखता है।इस व्रत में केवल भोजन का त्याग प्रमुख नहीं है। विषय, कषाय, रागद्वेष आरंभादि गृहकार्य और निद्रा आलस्यादि प्रमाद ये मुख्यतया वर्जनीय हैं। इनका प्रभाव अपने ऊपर न हो इसलिए आहार का त्याग करना पड़ता है। जो पूर्णतया आहार त्याग में असमर्थ हैं, बिना आहार के परिणाम स्थिर नहीं रहते, संक्लेश होता है, वे एक बार आहार करके भी इस व्रत का पालन करते हैं। वह आहार रस रहित हो, जिह्वा का स्वाद न रहे और भूख के कष्ट को दूर कर अपने उपयोग की अस्थिरता मिटाकर धर्मध्यान में सहायक हो सके यह प्रयत्न होना चाहिए। भोजन के त्याग के क्रम में एक बार भोजन, अल्पभोजन, रसरहित भोजन या सम्पूर्ण भोजन का त्याग ही शास्त्रविहित है। इन्हें एकाशन, ऊनोदर, रसपरित्याग और अनशन ऐसा क्रमशःशास्त्रोक्त नाम प्राप्त हैं। वर्तमान में इस त्याग में भी कुछ मनोकल्पित पद्धतियाँ स्वीकार कर ली गयी हैं। यथा-पर्व के दिन अन्न का त्याग कर फलादि का, दुग्धादि रसों का व मेवा आदि गरिष्ठ पदार्थों का सेवन। कुछ व्रती अन्नादि आहार ग्रहण कर भी जल का त्याग कर देते हैं और दुग्धादिपान द्वारा जल की कमी को पूरा करते हैं। टीकाकार की दृष्टि में ये दोनों विधियाँ आगम में कहीं नहीं बतायी गयी हैं। अन्नाहार का त्याग करके अन्य आहार रखने का क्रम सल्लेखना में बताया गया है। जहाँ आहार मात्र के त्याग की भावना है वहाँ आहार की कमी की पूर्ति के लिए अन्न के स्थान में विभिन्न रसों व फलों के ग्रहण की बात नहीं कही गई है, किन्तु नीरस आहार का विधान है। यदि पेय पदार्थों का उपयोग भी है तो केवल दुग्ध या छाछ आदि या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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