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________________ नैष्ठिकाचार २७९ व पत्रादि का अथवा सचित्त (कच्चे) जलादि का ग्रहण चतुर्थ प्रतिमा तक यदा कदाचित् हो जाता था। यद्यपि पर्वादि दिनों में अथवा भोगोपभोगत्याग में सचित्त द्रव्य के भक्षण का त्याग चतुर्थ प्रतिमा तक भी था तथापि इस प्रतिमा में उस सचित्त द्रव्य का सर्वथा त्याग व्रती कर देता है। इसलिए इस प्रतिमा का नाम सचित्तत्यागप्रतिमा है। ये सचित्तद्रव्य अग्नि से पकाने पर, नमक आदि क्षार द्रव्य से संयुक्त होने पर अथवा चाकू आदि के द्वारा छोटे-छोटे टुकड़े करने पर या सिल लोढ़ा आदि से कुचल जाने पर अचित्त हो जाते हैं। इस प्रतिमा वाला ऐसे अचित्त द्रव्यों का ही उपयोग करता है। सचित्तपदार्थों का प्राणान्त होने पर भी भक्षण नहीं करता। इस व्रत के परिपालन करने से भोगोपभोग परिणाम व्रत में अभिवृद्धि होती है, परिणामों में विशेष दया उत्पन्न होती है, मन और इन्द्रियों के विषयों पर विजय होती है, प्राणी स्वात्मा के समीप आता है, पर पदार्थों में विरक्ति बढ़ती है और परिणाम निर्मल होते हैं। स्वयं आराधना किए गए अपने व्रत रूपी सम्पत्ति में वृद्धि होने से वह अपने को कृतकृत्य मानता है। इसलिए इस प्रतिमा को स्वीकार करता है। ऐसा पंचम प्रतिमा का स्वरूप है। __यहाँ पर प्रश्न हो सकता है कि श्रावक एकदेश व्रती है, उसने त्रसघात का त्याग किया है। उसके स्थावर घात का नहीं। यद्यपि संकल्प से अनावश्यक स्थावर का भी घात नहीं करता तथापि गृहारम्भ में, भोजन के आरम्भ में और रसोई बनाने आदि में, स्थावर हिंसा का त्याग संभव नहीं है, अतः उनमें स्थावर का घात होता है, तब सचित्त द्रव्य का त्याग श्रावक के व्रतों में क्यों रखा गया है। उत्तर यह है कि यद्यपि प्रश्न में दिखाई गई सभी बातें सही हैं तथापि यह प्रतिमा भोगोपभोगों में न्यूनता करने के हेतु तथा अहिंसाणुव्रत को अहिंसा महाव्रत के रूप में परिणत करने हेतु प्रयास रूप है। आगे-आगे की सभी प्रतिमाओं का उद्देश्य अणुव्रतों में उत्तमता लाते-लाते उन्हें महाव्रत रूप परिणत कराने का है, इसलिए सचित्त त्याग भूषणस्वरूप ही है। कोई सज्जन ऐसा विवेचन करते हैं कि इस प्रतिमा में सचित्त को अचित्त करने का कार्य भी नहीं करना चाहिए, केवल अचित्त द्रव्यों का उपयोग करना चाहिए। पर यह विवेचन प्रतिमाधारी की उत्कृष्टता का प्रतिपादक होने पर भी सामान्य नियम नहीं है। आगम में गृहारम्भ त्याग आठवीं प्रतिमा में निरूपित किया गया है। उसका नाम आरम्भ त्याग प्रतिमा है। अतः इस प्रकार का त्याग वहाँ ही सम्भव है। यदि यहाँ ही यह त्याग होता तो आठवीं प्रतिमा का निरूपण नहीं होता। उसका उपदेश व्यर्थ हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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