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________________ नैष्ठिकाचार २६१ तीर्थंकर भगवान् अर्हन्त सम्पूर्णतया रागद्वेष रहित होने से पूर्ण वीतराग हैं। उक्त विभूतियाँ इन्द्र तथा चक्रवर्ती आदि के भक्ति के फलस्वरूप समवसरण आदि में एकत्रित हैं। उनमें भगवान् को न राग है और न उनका स्वामित्व है। आप स्वामी हैं, तीन लोक के धनी हैं, अनुपम विभूति के धारक हैं इत्यादि वाक्यों का उपयोग भक्तिवशात् ही किए जाते हैं। वस्तुतः उन पदों का जो वाक्यार्थ है वह सही नहीं है। यथार्थ यह है कि तीन लोक के हितकारक होने से त्रिलोक के प्राणी उन्हें अपना स्वामी कह सकते हैं। उनकी भक्ति के वश जिस समवसरण की रचना इन्द्रादि करते हैं उतनी विभूति तथा सर्वोत्कृष्ट सामग्री अन्यत्र कहीं नहीं पाई जाती इसलिए अनुपम विभूतिवान् कह देते हैं। पर उनकी वास्तविक विभूति तो उनके आत्मीय गुण हैं। बाह्य विभूति के रूप में तृणमात्र भी उनके द्वारा गृहीत नहीं है। तब जिन पदार्थों का ग्रहण ही नहीं है अथवा जिनके ग्रहण करने का भाव या रुचि ही नहीं है उनको ये त्याग कर क्षायिक दानी हैं ऐसा समझना भूल है। __क्षायिक दानी तो सिद्धपरमात्मा भी हैं। वहाँ तो कोई समवसरणादि भी नहीं है। इससे सिद्ध है कि परम वीतराग प्रभु अर्हन्त या सिद्धावस्था में सिद्ध अपने परम पवित्र स्वरूप दर्शन से ही असंख्य प्राणियों के उद्धारक हैं उनके भव दुःख से उद्धार होने में निमित्त हैं, अतः इस निमित्त से वे दानी हैं। उनसे अधिक त्यागी कौन हो सकता है जिन्होंने न केवल बाह्य परिग्रह को किन्तु आन्तरिक रागद्वेष को भी त्याग दिया है अतः वे सर्वोत्कृष्ट त्यागी या दानी हैं। इस प्रकार उक्त परमदाता की पदवी प्राप्त करने की अभिलाषा से ही गृहस्थ उक्त मार्ग पर पदार्पण करनेवाले साधुवर्ग की, धर्मात्मा गृहस्थ की तथा सम्यग्दर्शन संयुक्त प्राणी की यथायोग्य वैयावृत्ति या अनेक प्रकार की सहायता करता है,यही अतिथिसंविभाग व्रत है।२००। अतिथि संविभाग व्रत के अतिचार (अनुष्टुप्) ये सचित्तनिक्षेपाद्या अत्ययाः पञ्चसंख्यकाः । ते त्याज्या दुःखदा भव्यैः सुखी स्वात्मा भवेद्यतः ।।२०१।। य इत्यादि:- सचित्तनिक्षेपः सचित्तापिधानं परव्यपदेशः मात्सर्यं कालातिक्रमश्चेति ये पञ्चातिचारा उक्ता अतिथिसंविभागव्रतस्य तेषामेवात्र वर्णनमभिप्रेतम् । तद्विस्तरः-(१) सचित्ते Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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