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श्रावकधर्मप्रदीप
हेतु जो सादा साधारण शुद्ध भोजन आपने तैयार किया हो उसमें से ही कुछ अंश देना है, अतः इसमें द्रव्य के खर्च का प्रश्न ही नहीं है। धर्म प्रेम का ही प्रश्न है।
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दानी से दानी व्यक्ति भी करोड़ों का दान कर सकता है पर अपने पास यदि सीमित भोजन हो, और अन्य कोई भोजनार्थी आ जाय तो उसे अपना भोजन देने में कष्ट होगा। वह उसके एवज में उससे चौगुना या अठगुना भी द्रव्य उसे दे सकेगा पर जो उसके उपयुक्त रखा हुआ सीमित भोजन है उसे नहीं दे सकेगा। ऐसा होने पर भी यदि उसका प्रिय पुत्र या अन्य इष्टतम संमुख आ जाय तो वह ममता से उस भोजन को अपने इष्टतम को प्रेम से खिला देगा। उस समय कुछ भी कष्ट का अनुभव न करेगा बल्कि ऐसा करने में उसे प्रसन्नता होगी। इसी प्रकार गृहस्थ भी अपने हेतु बनाए हुए नित्य के साधारण जीवन में सहायक जीवनोपयोगी भोजन में से समय पर पधारे हुए अनन्य श्रद्धा के भाजन गुरुजन के आ जाने पर बड़ी ममता, विनय और भक्ति के साथ उनकी आवश्यकता पूर्ति के लिए दान कर देता है और बड़ी प्रसन्नता से अपने जीवन को धन्य मानता है।
न केवल उस धन का त्याग करता है जो उसके पास आवश्यकता से अधिक संगृहीत है। निर्धन उस धन का त्याग करता है। जो उसके पास उसकी अधिक से अधिक जरूरी शारीरिक आवश्यकताओं के लिए संगृहीत है। धनी केवल धन दे सकता है पर निर्धन साधु की तथा अन्य धर्मात्माओं की अथवा साधर्मियों की अथवा दुःखी जनों की तन से व करुणा बुद्धि से सेवा, श्रद्धा, विनय और सहानुभूति यथायोग्य कर सकता है यदि वह करे तो । अतः उक्त प्रश्न निराधार है।
मनुष्य जितना अधिक अपने विषय साधनों का त्यागी है वह उतना ही बड़ा दानी है। सर्वारम्भ परिग्रह के त्यागी भगवान् अर्हन्तकेवली के क्षायिक दान नामक गुण कहा गया है। यदि द्रव्याश्रित ही दान हो तो भगवान् अर्हन्त सर्वोत्कृष्ट क्षायिक दान के दाता कैसे बन सकते हैं, अतः ‘अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्' स्वपर अनुग्रह के लिए स्वार्थ का त्याग दान है यह भगवान् गृद्घपिच्छकी दान की व्याख्या सर्वोत्कृष्ट व्याख्या है।
भगवान् अर्हन्त तीन लोक के धनी हैं। समवसरणादि महान् विभूति उनके है। इन्द्रादि असंख्य देव तथा विद्याधर चक्रवर्ती आदि बड़े-बड़े उनके सेवक हैं, अतः इस
विभूति को त्याग कर मोक्ष प्राप्त करने के कारण वे अनन्तदानी हैं ऐसा भी कोई-कोई शंकाकार समाधान कर लेते हैं पर यह समाधान सही नहीं है यह आगम के सामान्य ज्ञाता भी जानते हैं ।
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