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________________ नैष्ठिकाचार करते हैं वे शरीराश्रय से। शरीर में क्षुधा तृषा अनादि का रोग है । इतनी ही पराधीनता है जिसका सर्वथा त्याग साधु नहीं कर पाता। वह वस्त्र का त्यागकर दिगम्बर हो जाता है; शीत व उष्ण तथा वर्षा की असह्य वेदनाओं की परवाह नहीं करता। धन की लिप्सा, कुटुम्बियों का स्नेह, गृह का मोह, दास-दासियों की सेवा, शारीरिक शृङ्गार आदि सब का त्याग कर देता है। वह त्याग उसका जीवनपर्यन्त के लिए है। तथापि भूख-प्यास आदि नियमित समय तक ही सह सकता है। उसे अभिभावित करने पर शारीरिक शक्ति का ह्रास हो जाने से धर्मसाधना में बहुत बड़ी बाधा आ जाती है, अतः वे आहार के निमित्त श्रावक के घर आते हैं। गृहस्थ के साथ उनका मात्र इतना ही संबंध है। यदि इतना कार्य श्रावक के आश्रय से पूर्ण करने की आवश्यकता न होती तो साधु वन छोड़ नगर का शायद कभी आश्रय ही न करता । मुनि दर्शन को श्रावक वन-वन भटकते और शायद मुश्किल से कहीं दर्शन पाते। इस तरह शरीर की शक्ति को तप में सहायक जानकर स्थिर रखने के लिए आहार की आवश्यकता है। वह आहार देने का शुभावसर सदाचारी श्रावक को प्राप्त होता है। सर्वारम्भ परिग्रह के प्रति अपने स्नेह का त्याग करनेवाले उसे महान उदार अतिकष्टसहिष्णु निरिच्छ पुरुष को कोई चक्रवर्ती भी अपने सर्वस्व का निछावर कर मात्र विशुद्ध आहार के और कुछ नहीं दे सकता । स्वर्ग का इन्द्र महान् विभूति का धारक होता है। अनेक ऋद्धियाँ तथा संपत्तियाँ उसकी दासी के समान सेवा करती हैं। वह चाहता है कि इन त्रैलोक्य प्रतिष्ठित साधुओं की मैं कुछ सेवा करूँ। पर वह हताश हो जाता है कि मैं कैसे सेवा करूँ? मेरी तो कोई भी सेवा साधु ग्रहण नहीं करते। आहार मात्र जो लेते हैं वह भी अव्रती देवादिक के द्वारा नहीं । व्रती विशुद्ध श्रावकों द्वारा ही ग्रहण करतें हैं। श्रावक चाहे वह मात्र मूलगुण धारी पाक्षिक ही क्यो न हो, इस नाते से वह इन्द्र से भी श्रेष्ठ है। २५५ भोजन के सिवाय मुनिजनों को यदि कुछ दिया जा सकता है तो वह रोगित अवस्था में औषधि का दान है। यह औषधि भी वे केवल भोजन के साथ उसे यथाभोजन मानकर ले लेते हैं। भोजनातिरिक्त समय में उसे भी ग्रहण नहीं करते । मात्र शरीर पर लगाने की औषधि का प्रयोग ही अन्य समय पर किया जा सकता है। खाने-पीने की औषधियों aai | यह औषधि भी त्रसघातादि दोषों से सर्वथा रहित हो और भोजन सामग्री की तरह ही विशुद्ध हो तो ही वह उनके लिए ग्राह्य होगी। अशुद्ध औषधियों का उपयोग साधुजन कभी नहीं करते। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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