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________________ २५६ श्रावकधर्मप्रदीप दैनिक स्वाध्याय (ज्ञानार्जन) के हेतु यदि कोई श्रावक भक्तिपूर्वक कोई आगमग्रन्थ उन्हें दे तो आवश्यकता होने पर उसे साधु ग्रहण कर लेता है। यह शास्त्र उसका परिग्रह नहीं है। मात्र स्वाध्याय हेतु ग्रहण करता है। स्वाध्याय पूर्ण होने पर उसे वे किसी श्रावक को, किसी मन्दिर में या किसी अन्य साधु को प्रदान कर देते हैं। ___साधु सेवा के लिए जीवरक्षार्थ पीछी तथा शारीरिक शौचादि बाधा होने पर शुद्धि के लिए उपयोग में आनेवाले जल को रखने का कमंडलु भी दिया जा सकता है। वर्षा या शीत ऋतु के समय कोई कुटी या कोई छोटा सा स्थान यदि बना हुआहो तो साधु वर्षायोग में ४ मास और अन्य ऋतु में ४-५ दिन ही साधारणतया उपयोग में लेते हैं। इनके सिवाय बीमारी में कोई शारीरिक सेवा तथा विपत्ति आने पर कोई सुरक्षा उपाय यदि श्रावक करे तो कर सकता है। उक्त सेवाओं के अलावा साधु को कुछ नहीं दिया जा सकता और न कोई अन्य सेवा ही वे ग्रहण करते हैं। उक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि साधु के हेतु जो दान दिया जाता है वह आहार, औषधि, शास्त्र और स्थान ये चार ही हैं अन्य नहीं। जैनाचार्यों ने दान के चार ही भेद किए हैं। कहीं-कहीं नाम में कुछ अंतर है। कोई-कोई शास्त्रकार शास्त्र-दान के स्थान पर उपकरण-दान शब्द का उपयोग करते हैं। उसकी व्याख्या यह है कि मात्र ज्ञान और संयम के साधनभूत उपकरण देना। ज्ञानोपकरण जैसे शास्त्र है वेसे ही संयम के लिए सहायक पीछी और कमण्डलु हैं। इस आधार पर भोजन के हेतु बरतन तथा वस्त्र आदि का दान उपकरण दान कहना न्याय तथा आगम सम्मत नहीं है, क्योंकि ये दोनों परिग्रह हैं संयम के साधन नहीं हैं। ___ हाँ, वर्तमान में चश्मा और घड़ी का उपयोग दिगम्बर साधुओं के द्वारा होता है। इनमें चश्मा शास्त्राभ्यास में भी सहायक है और मार्गदर्शन में जीव बाधा दूर करने में भी उसका उपयोग होता है अतः ज्ञान और संयम दोनों का सहायक होने से दिया जा सकता है, किन्तु वह सुन्दरता की दृष्टि से कीमती न देना चाहिए और न उन्हें लेना भी चाहिए।घड़ी न संयम का साधन है और न स्वाध्याय का, अतः उसका दान उपकरण दान नहीं, अतः न यह देना चाहिए और न साधु को अपने पास रखना ही चाहिए। साधु के लिए प्रातः सायं और दोपहर सामायिक के काल हैं। प्रातःकाल सूर्योदय से, सायंकाल सूर्यास्त से और मध्यान्ह काल मध्यसूर्य से सहज ही जाना जाता है। करोड़ों ग्रामीण जनों को बिना घड़ी के ही समय ज्ञान दिन में तो सहज ही होता है, रात्रि में Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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