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________________ २५४ श्रावकधर्मप्रदीप ऐसे सर्वोत्कृष्ट पात्र महामुनियों को दोष और अन्तरायों को, जिनका वर्णन इस ग्रंथ के पूर्व भाग में (मुनिधर्मप्रदीप में) आयुका है, टालकर विशुद्ध परिणामों से उनकी प्रकृति के अनुकूल, न अतिरूक्ष, न अतिगरिष्ठ, सौम्य आहारादि द्रव्य दान में देना अतिथिसंविभागवत है। लोक में व शास्त्र में दान की सर्वत्र महिमा गाई जाती है। देना सर्वोत्कृष्ट कार्य हैं इसमें सन्देह नहीं; क्योंकि इस शुभ कार्य से हमें त्याग की महत्ता का बोध होता है। हम स्वयं भी त्याग करते हैं, और देते भी उन्हें हैं जिन्होंने अपने जीवन में त्याग की प्रतिष्ठा की है। इस तरह त्यागियों के प्रति स्नेह जागृत होने से त्याग की भावना जागृत होती है। परावलंब को छोड़ने और स्वावलंब को प्राप्त करने का यह दान बहुत सुन्दर मार्ग है। इसका आदि है पर अन्त नहीं। अनन्त क्षायिकदान गुण के अवलंबी सिद्ध परमात्मा के पुनीत स्वरूप के अवलंबन मात्र से अनन्त जीव मुक्ति पद प्राप्त करते हैं। उनका यह पवित्र दान अनंत काल तक चलेगा, अतः इस महान् अनंत कार्य का प्रारम्भ व्रती श्रावक परपदार्थ के त्याग से करता है। उत्तम पात्र दिगम्बर मुनिजनों के न प्राप्त होने पर आर्यिका व्रती-श्रावक-श्राविका आदि मध्यम पात्रों को अथवा वे भी न मिल सकें तो जघन्य पात्र व्रतरहित होने पर भी जो धर्म का श्रद्धालु हो उसे दान देना उचित है। इस प्रकार मुनि आर्यिका, श्रावक, श्राविका ऐसे चार प्रकार के संघ को अपनी श्रद्धा, भक्ति, संतोष, विवेक, उदारता और धैर्यपूर्वक शक्ति के अनुसार दान देना चाहिए। उक्त सात गुण सहित दाता जब पात्रों का प्रीति पूर्वक प्रतिग्रह करता है, उन्हें उच्चस्थान देता है, उनके पाद प्रक्षालन करता है, उनका आदर और विनय करता है, और उदार पवित्र मन से, उत्तम वचनों के साथ, पवित्रता के साथ आहार आदि देता है तब वह श्रावक की नवधा भक्ति कही जाती है। गुणवान् श्रावक के द्वारा नवधा भक्तिपूर्वक दिया गया दान कल्पलता के समान उत्तमोत्तम फल को प्राप्त होता है। इस तरह उत्तम श्रावक द्वारा उत्तम पात्रों के लिए उत्तम विधि से दिया गया उत्तम वस्तुओं का दान उत्तम दान या अतिथिसंविभाग व्रत कहलाता है। उत्तम वस्तु से तात्पर्य यहाँ पर बहुमूल्य वस्तु से नहीं है। देय वस्तु की उत्तमता इस संबंध से जानी जाती है कि देय वस्तु संयमी पुरुष के ज्ञानार्जन ध्यान तप आदि आवश्यक धर्म कार्य में सहायक शरीर के लिए कहाँ तक उपयोगी है। साधु व त्यागी धर्मात्मा पुरुष जो धर्म की साधना Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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