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________________ नैष्ठिकाचार २५३ स्वात्मगुणसंपत्त्या स्वानन्दरसमास्वादयन्तः तज्जनितपरमाचिन्त्यानिन्द्रियसौख्यमनुभवन्तः तपस्यन्ति ते विजने। न तेऽनुभवन्ति कदाचिद् मनागपि दुःखमात्राम् । स्वात्मस्वरूपविमुखं पौद्गलिकं शरीरं न पोषयन्ति। पंचेन्द्रियविषयेषु निस्पृहास्ते क्रोधमानमायालोभादिभिर्मुक्ताः सन्तः स्वात्ममन्येव निवसन्ति। एवं धर्मरसिकेभ्यस्तेभ्यः विशुद्धं तपसि सहायभूतं नातिरूक्षं नातिपौष्टिकं तत्प्रकृतियोग्यं भोजनादिकं प्रतिदिनं निर्दोषपद्धत्या दातव्यम् । उत्तमपात्रास्ते कलिकाले तु एतादृशानां महात्मनां विरलता दृश्यते, तदा कस्मै देयं दानमित्यपि प्रश्नः सञ्जायते। इत्यत्राचार्याः उत्तरयन्ति यत् मुन्यार्यिकाश्रावकश्राविकाभेदेन विभिन्नाय चतुर्विधाय संघाय आहारभैषज्यशास्त्राभयरूपं चतुर्विधमपि दानं यथावसरं यथायोग्यं यथावश्यकं देयम् । इत्यनेन प्रकारेण दानेन दातुर्गृहिणः दानपात्रस्य च कल्याणं भवति। धर्मपात्राणान्तेषान्तु धर्मसिद्धिर्भवति। तत्सहायकतणान्तु गृहिणां महत्पुण्योपार्जनं भवति। इत्युभयसिद्धिप्रदायकमेतद् व्रतमस्ति। धर्मप्रीत्या प्रतिग्रहणं-उच्चस्थाने निवेशनं-पादप्रक्षालनंतेषामादरः-तेषु विनयः-विशुद्धेन मनसा-विशुद्धेन वचसा-विशुद्धेन कायेन-विशुद्धमाहारादिकं देयम्। एवं नवधा भक्त्या श्रद्धया-सन्तोषबुद्ध्या-विवेकेन-उदारतया-धीरतया-स्वशक्तिमनिगृह्य यद् ददाति श्रावकस्तस्य स्यादतिथिसंविभागवतम् । प्रतिदिनं स्वयोग्यनिर्मापितभोजनादिद्रव्येषु अतिथिजनाय यद्विभागः क्रियते तद्गृहिणः धर्मस्नेहसूचकम्महत्कार्यमस्ति। एतेन तस्य प्रकृतिः सदोदारा भवति। त्यागमार्गे तु सहायिका सा प्रकृतिः सदादरणीया। श्रावकव्रतस्य मुकुटमणिरिव एतदतिथिसंविभागवतमस्ति।२००। श्रावक के १२ व्रतों में अन्तिम व्रत अतिथिसंविभाग है। यह व्रत उसके सम्पूर्ण व्रतों का मुकुटमणि है। इस व्रत के द्वारा वह अपने भीतर उदार भावनाओं को प्रोत्साहित करता है और त्याग के मार्ग पर आनंद के साथ वृद्धि को प्राप्त होता जाता है। ___ अतिथि उन्हें कहते हैं जिनके आने व जाने की कोई निश्चित तिथि यानि दिन न हो। महाव्रती दिगम्बर साधु आत्मसाधना के हेतु वन में विचरण करते हैं। आत्मा और शरीर के भेद का विज्ञान प्राप्त हो जाने से वे शरीर के सम्पूर्ण साधनों का त्याग कर चुके हैं। केवल स्वात्मगुणों के प्रेमी,उनकी प्राप्ति के उद्देश्य से ही अनेकापदाओं का आश्रय करने वाले धनरहित व परिग्रहरहित वे तपोधन एकान्त प्रदेशों में आत्मध्यान करते हैं। __ आत्मगुणों की सम्पत्ति के स्वामी आत्मानन्द रस के आस्वादी परम अचिन्त्य अतीन्द्रिय सुख के भोक्ता वे महामुनि कठिन से कठिन तपस्याओं का अवलंबन करने पर भी किंचिन्मात्र भी दुःख नहीं मानते। पाँचों इन्द्रियों के विषयों में तथा क्रोध, मान माया, लोभ आदि कषायों में सर्वथा निस्पृह होकर वे अपनी धर्म संपत्ति को सम्हालने में ही लगे रहते हैं। उनका यही एक मात्र व्यापार है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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