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________________ २५२ श्रावकधर्मप्रदीप अभ्यासरूप संयम है, भोगोपभोगपरिमाणव्रत है अतः कुतर्क को यहाँ स्थान नहीं । पर्व में सचित्त त्याग का विशेष प्रयोजन यह भी है कि इससे इन्द्रिय संयम और प्राणिसंयम दो संयमों की एक साथ साधना होती है। अन्य रसत्याग में मात्र इन्द्रिय संयम सधेगा अतः सचित्त वनस्पति का त्याग सरल तथा अधिक संयम का साधक है। उक्त सब बातों पर विचार रखकर व्रत पालनेवाला यदि अपने व्रत को निर्दोष बनाने का सतत प्रयत्न करता है तो भी वह व्रती संज्ञा को प्राप्त होता है। ऐसा होते हुए भी यह संभावना की जाती है कि कभी प्रमादवश उसके व्रतों में अतिचार आदि दूषण प्राप्त हो जाय तो ऐसी स्थिति में प्रायश्चित्तादि के द्वारा अपने परिणामों को शुद्ध करके पुनः व्रत पर आरोहण करना चाहिये । प्रमाद से व्रत में दूषण लगजाने पर ऐसा विचार करना कि अब तो व्रत नष्ट हो गया हैं अब फिर पालने से क्या फायदा बहुत गलत विचार है। दूने उत्साह के साथ उस व्रत को पुनः पालना चाहिये । व्रती का तो मूलोद्देश्य ही पदार्थों की लम्पटता से अपने को छुड़ाकर स्वात्मावलम्बी बनाने का है, अतः वह तब तक चुप नहीं बैठ सकता जब तक अपने उद्देश्य में सफल न हो। वह पापोन्मुख करनेवाले दोषाधायक इन तथा इन जैसे अन्य अतिचारों से अपने व्रत को बचावे जिससे वह इस परवलम्बनरूप महारोग से उन्मुक्त होकर स्वस्थ हो जाय । १९९ । प्रश्नः - अतिथिसंविभागस्य किं चिह्नं मे गुरो वद । गुरुदेव! अतिथिसंविभाग नामक व्रत का क्या स्वरूप है, कृपया कहिए (वसन्ततिलका) स्वानन्दसौख्यनिरताय चतुर्विधाय संघाय धर्मरसिकाय निजान्यसिद्धयै । दानं क्षमादिजनकं हि चतुर्विधं यो Jain Education International - भक्त्या ददाति स जनोऽतिथिसंविभागी ।। २०० ।। स्वेत्यादिः - अतिथये संविभागः अतिथिसंविभागः। कोऽसावतिथिः ? यस्यागमने गमने वा न तिथिर्नियता सोऽतिथिः इति तस्य व्युत्पत्तिः। तात्पर्यन्त्विदं यत् स्वगृहागताय रत्नत्रयपवित्रिताय दिगम्बराय भक्त्या आहारादिदानं यः करोति सः स्यादतिथिसंविभागव्रती । महाव्रतिनो दिगम्बराः साधवः स्वोदरगर्त्तपूरणार्थमसाधनाः वित्तहीनाः निरारम्भाः सन्ति। सर्वसाधनानां धनस्य च तैस्त्यागः कृतः स्वेच्छया । ते महाजनाः परावलम्बान् परित्यज्य स्वावलम्बिनः सन्तः विचरन्ति वने व www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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