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________________ २३४ श्रावकधर्मप्रदीप प्रक्षायलति विशोधयति चेति सप्तविधं प्रतिक्रमणं भवति स्वदोषशान्त्यर्थं सामायिकेऽपि तत्स्यात् इति तृतीयं प्रतिक्रमणं व्रतम् । ४-भूतकाले कृतकर्मणः निन्दया गर्हया च विशोधनं कृत्वा वर्तमानदोषांश्च आलोचनया विशोध्य भाविकाले एतादृगपराधो न स्याद् इति विचारणया दोषाणां स्यागः प्रत्याख्याननामकं चतुर्थं व्रतं स्यात् । ५-शरीरस्यापि ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वमापनः प्रलम्बितभुजयुग्मः ऊर्ध्वजानुः चतुरङ्गुलान्तरांघ्रियुग्मः सुस्थितो भूत्वा पञ्चनमस्कारमंत्रस्मरणं अष्टोत्तरशतवारं चतुःपञ्चाशद्वारं सप्तविंशतिवारं नववारं वा तत्कायोत्सर्गो नाम पञ्चमं व्रतम् । प्रतिक्रमणे प्रत्याख्याने कायोत्सर्गे स्तुतौ वन्दनायां वा निजविकृतपरिणामानां परित्यागाय सावद्यद्रव्यनिमित्तेन वा समुत्पन्नदोषनिराकरणाय देहात्मभेदज्ञानात् स्वपरस्वरूपं सम्यग्ज्ञात्वा स्वस्वरूपग्रहणे प्रयत्नः क्रियते। तस्यैव स्मरणं तस्यैव जपः तस्यैव वन्दना तस्यैव स्तुतिरिति स्वात्मोपलब्ध्यै सर्वानप्युपायान् करोति। सामायिकाद्यावश्यकानां षण्णामेवात्र सामायिके वर्णनं कृतम्। सामायिकंतु मुख्यं इतरे पञ्चावश्यकास्तु तदङ्गीभूतास्तस्मात्तेषामत्र सामायिकव्रत एव समावेशः कृतः इत्येवं पञ्चाङ्गसमेतं सामायिकं करणीयम् । तदेव सामायिकं व्रतमिति। १८९।१९०।१९१। १९२।१९३। जिनवन्दना, जिनेन्द्र की स्तुति करना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये पाँच सामायिक के अंग आचार्यों ने उपदेशित किए है। इसका स्वरूप इस प्रकार है १-लौकिक लाभ प्रतिष्ठा अथवा अन्य प्रयोजन की अपेक्षा न करके केवल श्रद्धावश उत्पन्न हुई जिनभक्ति के कारण अर्हन्त और सिद्ध परमात्मा की वन्दना करना चाहिए। ये दोनों परमेष्ठी क्रमशः बहुदेश या सर्वदेश रूप से द्रव्यकर्म और भावकर्म से रहित होकर शुद्ध स्वात्मस्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं। इनके स्वरूप चिन्तन से भक्त पुरुषों को स्वात्मा के स्वरूप का दर्शन होता है। शुद्धान्तःस्स्वरूप परमात्मा हमारे आत्मा के प्रतिबिम्ब जैसे हैं। उन्हें देखकर हम आत्मस्वरूप की पहिचान करते हैं। आत्मोत्पन्न अमृतरस का स्वाद हमें उनके दर्शन से प्राप्त होता है, अतः जिन की वन्दना कल्याणप्रद है। २-ऋषभदेव से महावीर पर्यन्त वर्तमान चाौबीस तीर्थंकर भगवान अथवा भूतकाल या भाविकाल में होनेवाले चौबीसों तीर्थंकर अथवा विदेहक्षेत्रों में विद्यमान सीमंधरादि बीस तीर्थंकर हैं। इन सबके गुणों का बार-बार स्मरण कर यह विचार करना कि मेरे आत्मा में भी ये गुण विद्यमान हैं। मेरा शुद्ध स्वरूप तो इसी प्रकार है। इस तरह जिनेन्द्र की स्तुति के आधार से अपने स्वरूप का चिन्तवन करना आत्मा की बुभुक्षा को आत्मगुण रूपी अन्न भक्षण से शान्त करना ही जिनेन्द्र-स्तुति है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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