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________________ नैष्ठिकाचार २३५ __३-तीसरा अंग है प्रतिक्रमण। इसका स्वरूप इस प्रकार है यह विचार करना कि मुझसे जो प्रमादवश अपराध हुए हैं वे दूर हों। मेरे दोष मुझसे पृथक् हों। मैं निर्दोष बनूँ। इस प्रकार के विचारों से अपनी आत्मा के कृत अपराधों की आलोचना पूर्वक उनसे अपने को मुक्त करने की भावना करना प्रतिक्रमण है। व्रती पुरुष को दिन में जो दोष प्राप्त हुए हों उनको दूर करने का परिणाम दैवसिक प्रतिक्रमण है। रात्रि सम्बन्धी दोषों को दूर करना रात्रिकप्रतिक्रमण है। इसी तरह पाक्षिक, मासिक, चातुर्मासिक और वार्षिक दोषों को दूर करना उक्त नाम के प्रतिक्रमण हैं। जीवन के अन्त में जीवनभर के दोषों की विशुद्धि के लिए भी प्रतिक्रमण किया जाता है। उक्त सातों प्रसंगों पर अपने दोषों का स्मरण कर आत्मनिन्दा पूर्वक उनका विशोधन करना सात प्रकार का प्रतिक्रमण है। ४-अतीत काल के दोषों को जैसे निन्दा गर्हापूर्वक तथा वर्तमान दोषों को आलोचनापूर्वक विशुद्ध करके फिर यह विचार करना कि भविष्यकाल में मैं इस प्रकार के दोषों को अपने में न लगने दूंगा। ऐसे प्रयत्न का नाम प्रत्याख्याननामा चतुर्थ अंग है। ५-अपने शरीर से ममत्व परिणाम (यह मेरा है ऐसा परिणाम) त्यागकर निर्मोह भाव को प्राप्त कर स्थिर होकर पञ्चनमस्कार मंत्र का ध्यसान करना कायोत्सर्ग नामा पाँचवाँ अंग है। दोनों हाथ नीचे उन्मुक्त छोड़ना, दोनों पैरों के बीच ४ अंगुल मात्र अन्तर रखकर खड़े होना तथ काष्ठ या पाषाण की तरह स्थिर होकर जपना यह कायोत्सर्ग की मुद्रा है। मुख्य प्रयोजन कायोत्सर्ग का काय से भी निर्ममत्व होना है। इसमें नवबार, सत्ताईस बार, चौअन बार या एक सौ आठ बार भी जाप किया जाता है। सामायिक के इन पाँचों अंगों के करने में मुख्य हेतु क्या है इस प्रश्न का विचार करना आवश्यक है। सामायिक का उद्देश्य है समता परिणामों की प्राप्ति अर्थात् रागद्वेष से रहित आत्मपरणति स्वरूप बनना। उक्त पाँचों अंग उसके शरीरभूत हैं। उनके बिना समता परिणाम उत्पन्न नहीं हो सकते। __जब व्रती यह विचार करता है कि मेरा स्वरूप यथार्थतया श्रीजिनेन्द्र के शुद्ध स्वरूप की तरह रागद्वेष से विमुक्त है, निरञ्जन है, निराकार है और द्रव्य-भाव कर्म से रहित है, तब ही उसे अपने अतीत अपराधों की याद आती है। वह अपने अतीत दोषों पर विचार करता हुआ उनसे उन्मुक्त होना चाहता है। उसे यह अनुभव होने लगता है कि Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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