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________________ २३२ श्रावकधर्मप्रदीप क्या हेतु है यह उन्हें ज्ञात नहीं। जैनाचार्यों ने उसका उक्त प्रकार से स्पष्ट विवेचन किया है। इन १०८ विधि से होनेवाले दुःखदायी संसार परिभ्रमण के हेतुभूत पापों से बचने के लिए सामायिक व्रती सामायिक के समय जपमाला के आश्रय से अथवा अपनी कराङ्गुलियों की सहायता से १०८ बार परम पूज्य परमात्मा का नाम स्मरण करे तो उसके दैनिक पापों का दैनिक प्रक्षालन हो जाता है। पापों का पहाड़ एकत्रित नहीं होता, अतः सामायिकव्रती का प्राथमिक कर्तव्य जिनेन्द्र के नामों का संस्मरण है।१८५।१८६। नामस्मरण के बाद सामायिक में क्या करना चाहिए _ (अनुष्टुप्) सत्प्रतिक्रमणं पश्चात् कार्य निष्कामतो जनैः । स्वात्मशुद्धिर्यतः स्यात् कौ प्रेमवृद्धिः परस्परम् ॥१८७।। वस्त्वन्यत्स्वात्मनो भिन्नं त्यक्त्वा ज्ञात्वेति चिह्नतः। स्वात्मन्येव निवासः स्यात् परं सामायिकं व्रतम् ।।१८८।।युग्मम्।। सदित्यादि:- सांसारिकप्रयोजनमन्तरेण केवलं स्वात्मदोषशोधनाय प्रतिक्रमणं कर्तव्यम् । ये किल दोषाः संजातास्तेषां स्मरणं तदा भवति। व्रती तु विचारयति यत् यन्मया पापं कृतं तन्मे मिथ्या भवतु। अद्यप्रभृति एवंविधं-पापं न करिष्यामि। कृतपापतो मे मुक्तिः स्यात् । इत्येवं प्रतिक्रमो विधेयः। प्रतिक्रमेण वैरं दूरीभवति मैत्री वर्धते। विना प्रतिक्रमेण गृहस्थानां मुनीनां च व्रतानि न निर्मलानि भवन्ति। प्रतिक्रमणं व्रतिनां अत्यावश्यकं कर्म। तस्मात् प्रतिदिनं तत् कर्तव्यमेव। स्वात्मनो भिन्नानां वस्तूनां स्वरूपं सम्यक् परीक्ष्य तेभ्यो विरज्य स्वात्मन्येव स्वात्मनो निवासः सामायिकं व्रतम्भवति।१८७।१८८। प्रत्येक व्रती के लिए प्रतिक्रमण एक आवश्यक कर्म है। बिना प्रतिक्रमण के मुनि या श्रावक अपने व्रतों में जीवित नहीं रह सकता। उसकी पदमृत्यु बहुत शीध्र हो जायगी। प्रतिक्रमण व्रती के लिए रसायन है। दिव्यौषधि है। आत्मदोषों का स्मरण कर उसे दूर करने की भावना से व्रती जब अपने आप यह संकल्प करता है कि मैं इन पापों से मुक्त हो जाऊँ। मुझसे अब ऐसे पाप न बनें ऐसा प्रयत्न करूँगा तब वह प्रतिक्रमण का कर्ता माना जाता है। यदि हम अपने पापों पर स्वयं पश्चात्ताप करें तो हमारा वैरी भी शान्त हो जाता है। वह हमें क्षमा कर देता है। परस्पर प्रेम की वृद्धि होती है, अतः व्रती को प्रतिक्रमण अवश्य करना चाहिए। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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