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श्रावकधर्मप्रदीप
वागित्यादिः - मनोव्यापारेण वाग्व्यापारेण कायव्यापारेण च यत् किलात्मनश्चलनं तदेव कर्मास्रवकारणं भवति। योगचञ्चलतया आत्मभिन्नेषु अखिलेष्वपि पदार्थेषु न साम्यबुद्धिर्भवति किन्तु इष्टानिष्टापत्तितः रागद्वेषावुत्पद्येते । रागद्वेषौ तु बन्धनहेतू । स एव संसारः । ततस्तान् योगान् एकस्मिन्नात्मस्वरूपे वा निरुद्ध्य यदि लीनः स्यात् तर्हि तस्य धीरवीरस्य सर्वत्र इष्टानिष्टबुद्धेरभावो भवति साम्यभावश्चोत्पद्यते। तदेव सामायिकम् । तत्कर्त्ता च सामायिकव्रती । । १८४||
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मन-वचनव्यापार और काय के अवलंबन से आत्मप्रदेशों में हलचल होती है। यही हलचल आत्मा को कर्माधीन करने में हेतु है । जब संसार के पदार्थों की ओर आत्मा का उपयोग होता है तब उस अनात्मयोगी के उन पदार्थों में आत्मसुख प्राप्त करने की कल्पना उठती है। जो पदार्थ इन्द्रिय विषयों के लिए साधक पड़ने लगते हैं उन्हें इष्ट मानकर संग्रह करता है और जो असाधक हों उनसे दूर रहना चाहता है। प्रत्येक पदार्थ में उसे भेददृष्टि प्राप्त हो जाती है। यदि एक आम का फल हाथ आया तो उसमें रसभाग से प्रीति और छिलका आदि के प्रति अप्रीति पैदा हो जाती है। इसी प्रकार प्रीतिदायक व्यक्ति से प्रीति और अन्य से अप्रीति । कभी-कभी इष्ट पादर्थ के अनेक ग्राहक होने से भी पारस्परिक संघर्ष की स्थिति आ जाती है। संसार में यह प्रवृत्ति जीव की अनात्मबुद्धि होने के कारण अनादि से है।
सामायिक व्रत से यह रोग दूर हो जाता है। सामायिक व्रती आत्मभिन्न इन पदार्थों को ही आत्महित के बाधक मानकर उस ओर अपने मन, वचन और काय का व्यापार नहीं जाने देना चाहता। तीनों योगों की प्रवृत्ति आत्मतत्त्व या परमात्मतत्त्व के स्वरूपालिंगन में ही करता है। यदि वह इस प्रयोग में सफल होता है तो आत्मबाह्य पदार्थों में उसे कोई पदार्थ इष्ट या अनिष्ट कर प्रतीत नहीं होते। उनमें कोई भेद भाव नहीं होता । सब पदार्थों में साम्यभाव उत्पन्न हो जाता है। वह समझता है कि ये अनात्मपूत पदार्थ हैं इनमें राग और द्वेष क्यों ? पर पदार्थ मानकर उनके प्रति उपेक्षा और आत्मतत्त्व को निजस्वरूप मानकर उसके प्रति उपादेयता का भाव जागृत होता है। इस साम्य परणति का नाम ही सामायिक है। यह व्रत जिसे हो वह समझदार पुरुष सामायिक व्रत का व्रती है। यह व्रती सदा अपनी दृष्टि में यह रखता है कि आत्मबाह्य पदार्थों में कदाचित् भी राग द्वेष न हो। सबको एक ही दृष्टि से देखता है कि ये पर हैं मेरे लिए अनुपादेय हैं। सबपर समान भाव का नाम ही साम्य है । उसी साम्य भाव की प्राप्ति का प्रयत्न सामायिक है ।। १८४ ।।
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