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________________ नैष्ठिकाचार २२९ अनर्थदण्डव्रतस्य पञ्चातिचाराः निर्दिष्टाः। वस्तुतस्तु अनर्थदण्डानामनन्तत्वात् तद्गणना न स्यात् । अनादित एव संग्रहवृत्तित्वात् असंख्यलोकप्रमाणकषायांशैरभिभूतत्वाच्च लोकानां निष्प्रयोजनं अनेकानि पापानि भवन्ति। अतः भव्यपुरुषैस्तु एतेऽनर्थदण्डाः त्याज्याः यतः आत्मा सदा स्वाधीनः सुखी च स्यात्।१८३। हँसी करना, रागोत्पादक व्यंग्य वचन बोलना, कामोत्पादक दुश्चेष्टाओं का वर्णन करना कन्दर्प है।उक्त अभिप्राय पूरक शारीरिक दुश्चेष्टाएँ कौत्कुच्य है। जिन वचनों या चेष्टाओं से दूसरे प्राणियों को क्रोध, अभिमान, माया, लोभ आदि कषायों की प्रबलता हो उठे, झगड़े हो जाँय, मार-पीट हो जाय, कलह विसंवाद हो जाय, बैर बढ़ जाय वे भी इन दोनों अतिचारों में सम्मिलित हैं। वाचालता करना बिना प्रयोजन किसी की भी बातचीत के मध्य में अधिकता से बोलना मौखर्य है। अपने भोगोपभोग के योग्य भी हों, ऐसे गृह, आभूषण, सोना, चाँदी, रुपया, वस्त्र अथवा अन्य अनेक प्रकार के साधनों का अपनी आवश्यकता की पूर्ति हो जाने के बाद भी लोभवृत्ति से तथा अनादिकालीन परिग्रह संज्ञा, मैथुन संज्ञा, आहार संज्ञा तथा भय संज्ञा इन चतुर्विध संज्ञाओं के संस्कार से अधिकाधिक संग्रह करना तथा यह वस्त्र अच्छा लगता है इस भाव से अनेक फैसनों के पदार्थों का, जिनसे आवश्यकता की पूर्ति नहीं होती किन्तु केवल रागभाव प्रबल होता है, संग्रह करना अतिप्रसाधन नामक अतिचार है। पाँचवाँ है असमीक्ष्याधिकरण अर्थात् बिना विचारे, बिना देखे, शोधे अनावश्यक रूप से भी विविध प्रवृत्तियाँ करना। ये पाँच उदाहरण रूप से अनर्थदण्ड व्रत के अतिचार बताए गए हैं। वास्तव में असंख्यात लोक प्रमाण कषायें जीवों में हैं जिनकी पूर्ति न कभी हुई और न होगी। जीव अनादि से ही उन कषायों द्वारा अभिभूत है, अतः शारीरिक आवश्यकता न भी हो तो भी वह विविध प्रवृत्तियाँ, विविध चेष्टाएँ और विविध वाग्व्यापार करता है। इस भ्रांति को छोड़कर ऐसा कार्य करना चाहिए जिससे आत्मा सदा सुखी और स्वाधीन रहे। १८३। हे गुरुदेव! सामायिक का स्वरूप क्या है और उसके अतिचार कौन हैं, कहिए (वसन्ततिलका) वाक्कायचित्तचलनञ्च निरुद्धय साम्यं धृत्वात्मबाह्यसकले भवदे पदार्थे। लीनो भवेन्निजपदे हृदि यः स धीरः सामायिकव्रतयुतो भवति प्रकामम् ।।१८४।। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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