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________________ २२८ श्रावकधर्मप्रदीप यदि बिना आरम्भ के भी मेरा निर्वाह हो सकता हो तो मैं उन आरम्भों को जो व्यर्थ ही पापबंध के हेतु हैं न करूँ। ऐसा करना भी व्रत संज्ञा को प्राप्त कर लेता है और उसे ही अनर्थदण्डव्रत कहते हैं। बिना प्रयोजन भूमि खोदना, पानी सींचना, हवा करना, अग्नि जलाना या बुझाना, वृक्ष काटना, उसके पत्र व फल फूलों का तोड़ना, तथा किसी को अनेकानेक आरंभों को करने का उपदेश देना, पापारम्भ की क्रिया सिखाना, हिंसा के साधनों का प्रदान करना, स्वयं हिंसा झूठ चोरी आदि का त्याग होते हुए भी अपने पुत्र मित्रादि को जिन्हें उक्त पापों का त्याग नहीं है उन्हें यह समझकर कि मैं स्वयं तो करता नहीं हूँ और इन्हें त्याग नहीं है अतः इनको लाभ मिल जाय इस अभिप्राय से पापारम्भ के उपायों का बताना, कामवर्द्धक, हिंसा पोषक, चोरी विश्वासघात छल ठगोरी के विविध उपाय बतानेवाली पुस्तकों का पठन-पाठन करना, अथवा ऐसे खेल-तमाशे सिनेमा नाटक आदि देखना, किसी का अहित हो जाने पर हर्ष मानना, चोरी हो जाने पर प्रसन्न होना अथवा किसी के वध-बन्धन हो जाने का विचार करना, चोर कथा आदि विकथा करना, बिना प्रयोजन बाजार में हाट में गली कूचों में वेश्या व्यभिचारिणी कुट्टनी आदि के निवास स्थानों की ओर व चोर व्यभिचारी जुआरी लोगों के अड्डों पर चक्कर लगाना अनर्थदण्ड हैं। इत्यादि कार्य अपने तथा दूसरों के हित के विरुद्ध होने से नहीं करने चाहिए। इनसे कर्ता का कोई लौकिक प्रयोजन भी नहीं सधता किन्तु पाप का वृथा बंध हो जाता है। अतः निष्प्रयोजन पाप से बचना चाहिए।१८२। अनर्थदण्ड व्रत के अतिचार ये हैं (अनुष्टुप्) कन्दर्पकौत्कुच्याद्यतिचारा भ्रान्तिकारकाः। त्याज्या ज्ञात्वेति भव्यैः स्यात् स्वस्थः स्वात्मा सदा सुखी ।।१८३।। कन्दर्पत्यादि:- कन्दर्पः नाम रागोद्रेकात् मनोविकारोत्पादकवचनव्यवहारः। कौत्कुच्यं नाम शरीरस्य कुत्सिता चेष्टा नेत्रगात्रसंचारणं विटपुरुषाणां वेश्यादीनां अनुकरणं विदूषकत्वव्यापारः नानाप्रकारेण कामोत्पादिका चेष्टाः अधिकतया वाग्व्यापारः प्रयोजनेन विनाऽपि वचनाधिक्यप्रयोगः मौखर्यम् । भोगोपभोगयोग्यानामपि वस्तूनां स्वप्रयोजनमतिक्रम्य संग्रहः अतिप्रसाधनम् । प्रयोजनेन विनापि विविधकार्याणां लाभादिकमविचार्य करणं असमीक्ष्याधिकरणम् । इत्यनेन प्रकारेण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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