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________________ नैष्ठिकाचार २२७ हो जाते हैं। अथवा न भी हो सकते हों तो भी वे व्रत की मूल-भावना को नष्ट करने के कारण अतिचार ही हैं। ये सब अतिचार व्रतघातक होने से तथा आत्मा के लिए पापोत्पादक होने से सन्ताप उत्पन्न करने वाले हैं। इन सहित व्रती न तो आत्मशुद्धि को प्राप्त होता है और न निजात्मा का निवासी होता है इसलिए आत्महितैषी को इन अतिचारों से दूर रहकर स्वात्मशुद्धि व स्वहित करना चाहिये।१८१। अनर्थदण्ड नामक गुणव्रत का स्वरूप इस प्रकार है (वसन्ततिलका) स्वान्यात्मदुःखजनिका न च पापशिक्षा देया कदापि न च हिंसकवस्तुदानम् । त्याज्यं तथा स्वहितशून्यधनं ह्यनर्थ त्यागवतं स्वसुखदश्च भवेद्यतस्ते।।१८२।। स्वान्येत्यादि:- गार्हस्थिकप्रयोजनं विनापि यत् किल आरम्भादिकं क्रियते तत् अनर्थदण्डः। एकदेशव्रतधारिणो यद्यपि नारम्भस्य त्यागः तथापितज्जनितदोषस्तु तस्य स्यादेव। न तु सः एवंभूतान् आरम्भजनितान् दोषान् परिहर्तुं शक्तस्तथापि स एवं व्रतयति यत्प्रयोजनं विना भूम्यादिखननं जलपातनं पवननिःसारणं अग्निसंचारः वनस्पतिच्छेदनं आरम्भादीनां पापहेतुकानामुपदेशः हिंसायाः साधनभूतानां शस्त्रादीनां आदानप्रदानकरणं कुत्सितपुस्तकानां पठन पाठनञ्च कस्यचित् वधस्य बंधनस्य धनक्षयस्य पुत्रादिवियोगस्य चिन्ता वांछा वा पञ्च अनर्थदण्डाः। प्रयोजनवशात् तत्करणे यद्यपि न काचिद्धानिस्तथापि तदेकदेशतिना मर्यादामतिक्रम्य ते परिहरणीयाः। १८२। गृहस्थ एकदेशव्रत का धारी है, अतः गार्हस्थिक प्रयोजन से जो आरम्भ, उद्योग और व्यापार आदि के कार्य हैं उनका त्याग उसने नहीं किया है। तथापि उसके व्रत में इस अनर्थ दण्ड व्रत से विशेषता आ जाती है। जिन कार्यों के बिना किए भी उसका निर्वाह हो जाता है उन कार्यों के आरम्भ से बचना यह अनर्थ-दण्डव्रत है। जिन गृहस्थारम्भों का उसके त्याग नहीं है उनके करने में व्रतभंग भले ही न हो पर पाप तो होता ही है। उतना त्याग और हो जाय तो अणुव्रत महाव्रत जैसे बन जाते हैं। अतः जब तक उसके महाव्रत धारण करने की सामर्थ्य भीतर से नहीं उत्पन्न हुई तब तक अणुव्रतधारी यह विचार रखता है कि मैं अत्यावश्यक होने पर ही आरम्भ कार्य करूँ। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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