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________________ २२६ श्रावकधर्मप्रदीप स्वगमनागमनाभावेऽपि ततः कस्यचिदिष्टस्य वस्तुनः आनयनं नाम प्रथमोऽतिचारः। बहिःक्षेत्रे कस्यचित्पुरुषस्य प्रेषणम् । त्वं तत्र गच्छ एवं कुरु इत्येव प्रकारेण प्रयोगः प्रैष्यप्रयोगो नाम द्वितीयोऽतिचारः। आनयनप्रेष्यप्रयोगाभावेऽपि स्ववाक्येन बाह्यक्षेत्रस्थितान् जनान् यद्याज्ञापयति यदेवं कुरु तदेव शब्दानुपातः तृतीयोऽतिचारः। शब्दोच्चारणाभावे केवलं हस्तसंज्ञादिना स्वाभिप्रायं विज्ञाप्य बाह्यक्षेत्रे तत्रस्थितेन पुरुषेण कार्यानुष्ठापनं रूपानुपातः चतुर्थोऽतिचारः। तत्रैव क्षेत्रे पुद्गलानां लोष्टादीनां लिखितपत्रादीनाञ्च क्षेपणं पुद्गलक्षेपः पञ्चमोऽतिचारः। इति पञ्चातिचाराः देशावकाशिकस्य सन्ति। एतैर्ऋतं दूष्यते। स्वहितैषिणा सन्तापकारकाणामतिचाराणां त्यागः कर्तव्यः। १८१। आनयन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गलक्षेपण ये पाँच अतिचार ग्रंथान्तरों में लिखे गए हैं। उन सबको आदिपद से स्वीकार करते हुए, आचार्य प्रतिपादन करते हैं कि देशव्रत में जो क्षेत्र मर्यादा दिग्व्रत की विशाल मर्यादा में और भी संकोच कर बाँधी गई है, वह जितने समय के लिए है उतने समय तक अपने क्षेत्र के बाहर के प्रदेश में न तो किसी व्यक्ति को भेजकर कार्य कराना चाहिए और न किसी वस्तु को मर्यादा के बाहर क्षेत्र में भेजना चाहिए। यदि ऐसा करे तो क्षेत्रमर्यादा करने का वास्तविक प्रयोजन नष्ट हो जाता है। अतः व्रत लेने की जो मूल भावना है उसकी रक्षा करने के लिए इन दोषों का त्याग करे। क्षेत्र की मर्यादा के भीतर ही भीतर लेना, देना, व्यापार व्यवहार आदि करना चाहिए। भले ही उसमें कष्ट हो, पर उसको सहन कर शान्त रहना चाहिए, यही तो व्रत है। इसी प्रकार अमर्यादित क्षेत्र से कोई वस्तु या व्यक्ति को बुलाना अथवा आदेश देकर उस क्षेत्र में स्थित पुरुष से ही उस क्षेत्र के व्यापारादि कार्य को कराना यह भी दोषकारक है। यदि किसी को न भेजे, न बुलावे, न शब्दोच्चारण पूर्वक आदेश दे, पर केवल अपने संकेत द्वास बहिःक्षेत्र में स्थित अपने कार्यकारी व्यक्तिको स्वाभिप्राय समझा दे तो भी रूपानुपात नाम अतिचार है। मर्यादा बाहर कोई वस्तु फेंकना, पत्र भेजना इत्यादि पुद्गल द्रव्य का भेजना और उससे कार्य करना यह भी अतिचार है। ये सब अतिचारों के उदाहरण मात्र हैं। शास्त्रकारों ने प्रत्येक व्रत के जो ५-५ अतिचार बताए हैं वे उदाहरण मात्र हैं ऐसा समझना चाहिए। उन जैसे अन्य कार्य भी उसी कोटि में गिने जाँयगे। जैसे तार व टेलीफोन द्वारा समाचार भेजना शब्दानुपात है। चिट्ठी भेजना, पार्सल भेजना, मनीआर्डर भेजना आदि पुद्गलक्षेप है। इत्यादि अनेकानेक कार्य हैं जिनका नाम भले ही स्पष्ट न आया हो पर वे सब इन अतिचारों में अन्तर्गर्भित Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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