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________________ श्रावकधर्मप्रदीप समुचित व्यवस्था करे। उसके कुटुंब की व्यवस्था करे। यह सब कर्त्तव्य की दृष्टि से करना चाहिए। रोग- शोग आदि को छोड़ कर्त्तव्य पालन करना ही सच्ची मानवता है । १५२ । १९६ प्रश्नः - किं सूतकविधेश्चिह्नं वर्तते मे गुरो वद । हे गुरुदेव ! सूतक क्या है, उसका स्वरूप क्या है, उसका पालन करने का क्या श्रम है, कृपा कर कहें (अनुष्टुप्) मरणे सूतकं प्रोक्तं बन्धोर्मातुः पितुः कृते । द्वादशाहप्रमाणमन्येषां हीनं यथाक्रमम् ।। १५३ ।। जन्मन्यपि तथा प्राहुर्दशदिनप्रमाणकम् । स्ववंशिनां तथान्येषां हीनं ज्ञेयं यथाक्रमम् ।।१५४।। मरण इत्यादिः - स्ववंशजस्य बन्धोर्मातुः पितुश्च मरणे सति द्वादशदिनप्रमाणं सूतकं भवति । एवं द्वादशदिनप्रमाणं सूतकं प्रपितामहपर्यन्तमेव। तदनन्तरं वंशस्य परम्परायां यथाक्रमं हीनदिनप्रमाणं सूतकं ज्ञेयम् । एवमेव बालकस्य जन्मनोऽपि सूतकं भवति किन्तु तद् दशदिवसपर्यन्तमेव । सूतकमिदं पुत्रस्य पौत्रस्य प्रपौत्रस्य च भवति । तदनन्तरं वंशपरम्परायां यथाक्रमं हीनं ज्ञेयम् । १५३/१५४ | अशुद्धि का नाम अशौच है। जिससे यहाँ किसी का मरण हो तो उस मृत शरीर निमित्त से उसके गृह में अपवित्रता का वास हो जाता है और वह अपवित्रता केवल स्नान तथा वस्त्र धोने से नहीं मिटती, बल्कि यथाकाल दूर होती है। आठ प्रकार की लौकिक शुद्धियों में कालशुद्धि को भी श्री अकलंक देव ने स्थान दिया है। इस अशौच की शुद्ध काल से ही होती है । यह अशौच बालक के जन्म निमित्त से भी होता है। मृतक के अग्निदाह में असंख्य प्राणियों की हिंसा होती है । मृतशरीर अन्तर्मुहूर्त के बाद ही अनन्त जीवों की उत्पत्ति का स्थान हो जाता है। उन जीवों की हिंसा श्रावक के लिए अग्नि संस्कार में अनिवार्य होती है इसलिए भी उसे इस निमित्त से अशौच प्राप्त होता है। इसी प्रकार जन्म के समय बालक के साथ जो माता के उदर से जर आदि निकलती है वह भी अनन्त जीवों की उत्पत्ति का स्थान है उसे भी भूमि आदि में गड़वाकर नष्ट करना पड़ता है जिसमें उन प्राणियों की हिंसा बच नहीं सकती। इस पाप के कारण उस समय भी अशौच प्राप्त होता है। मृतक के वस्त्रादि के सम्बन्ध का तथा परम्परा सम्बन्ध का विछिन्न होना तत्काल सम्भव नहीं है। इसी प्रकार प्रसूता के अपवित्र वस्त्रों का सम्बन्ध तथा जन्मे हुए बालक Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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