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________________ नैष्ठिकाचार १९५ गई जो उन तीर्थों पर इन कार्यों से ही रुपया पैदा करते हैं। मरण के बाद जीव अपने कर्मानुसार ३ समय के भीतर जन्म ले लेता है उसका क्या उद्धार होगा ? । इष्टवियोगजन्य दुःख अवश्य मोही जीवों को होता है। उस दुःख में अनेक जन अपने व संसार के स्वरूप को भूलकर अत्यन्त उद्विग्न हो उठते हैं और हाहाकार मचाते हैं। वे यह नहीं सोचते कि जीवन के साथ मरण का अविनाभावी सम्बन्ध है। जो जन्म लेता है उसका मरण अवश्यंभावी है और जो अवश्यंभावी है वह हमारे हाहाकार से नहीं मिट सकता। अतः संसार की विनाशशीलता का विचार कर शोक को दूर करना चाहिए। यह विचार करना चाहिए कि यह जीव अनादि काल से कर्मबद्ध हो नाना जन्मों में भ्रमण करता फिरता है। यह मनुष्ययोनि भी उन अनन्त जीवों में से एक है। विना मरण के पुनर्जन्म कैसे संभव हैं? और संसार तो जन्म मरणों के समूह का ही नाम है। स्वोपार्जित कर्म को यह जीव अकेला ही भोगता है, कोई दूसरा इसका साथी नहीं है। जब यह उत्पन्न होने के समय अकेला ही आया है तब अकेला ही तो जायगा। जिस देह के साथ यह उत्पन्न हुआ था वह देह भी तो साथ नहीं जाती। तब अन्य भाई-बन्धु आदि कहाँ तक उसका साथ दे सकते हैं। ___ यथार्थ दृष्टि से विचार किया जाय तो भाई, बहिन, माता-पिता, पुत्र, मित्र, स्त्री और पति आदि लौकिक सगे सम्बन्धी हैं वे सब कल्पित हैं। यहाँ अकेला उत्पन्न होने पर भी प्राणी दूसरे प्राणियों से केवल जन्म निमित्त से सम्बन्ध जोड़ लेता है। जब जन्म ही मरणावस्था को प्राप्त हो गया तब जन्मसम्बन्धी कल्पित सम्बन्ध भी तो स्वयं समाप्त हो गए अतः शोक कैसा? ये कल्पित सम्बन्ध भी तो कुछ न कुछ स्वार्थ को लेकर होते हैं। जिन-जिन का स्वार्थ एक साथ बँधा है वे परस्पर सम्बन्धी कहलाते हैं। माता-पिता का स्नेह कब तक हृदय में बसता है जब तक उनसे अपना प्रतिपालन होता है। जब पुत्र समर्थ हो जाता है तब पत्नी का दास हो जाता है और माता-पिता का धन ले लेता है। उन्हें केवल दो रोटी का मुहताज बना देता है। पत्नी का स्नेह कबतक रहता है जब तक विषयवासना सधती है। यदि वह न सधे तो परस्पर कलह होने लगती है। भाई-भाई का प्रेम कबतक है जब तक धन का बाँट नहीं है, उसके बाद पड़ोसी जैसा व्यवहार रह जाता है। इत्यादि संसार और सगे सम्बन्धियों का यथार्थ रूप देखकर और विचार कर मोह का त्याग करे। हाहाकार न करे। किन्तु अपने कर्तव्य का पालन करे। अपने मृत सम्बन्धी के पुत्र, पुत्री, अबोध हों तो उनका पालन करे। उसकी सम्पत्ति की निःस्वार्थ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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