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________________ १९४ श्रावकधर्मप्रदीप (वसन्ततिलका) श्राद्धैश्च शास्त्रविधिना विमले वनादौ निर्जीवदेहदहनादिविधिर्विधेयः । हाहादिरोदनकृतिर्न मनाग्विधेया पश्चाद्यतो न हि भवेत् किल कर्मबन्धः । । १५२ ।। श्राद्धैश्चेत्यादिः– शास्त्रविधिना जीवजन्तुबाधारहिते विमले निर्जीवे एकान्ते बनादौ प्रदेशे नेत्रास्खलननाडिकासञ्चालन- हृदयास्पंदनादिभिर्निश्चितस्य निर्जीवदेहस्य श्राद्धैः दहनादिविधिः अग्निना संस्कारो विधेयः। शोकाविष्टैः तैः हा हा इति दैन्येन रोदनकृतिः मनागपि न विधेया यतस्तत्करणे किल पापबन्ध एव भवति । १५२ । शास्त्रोक्त विधि के अनुसार परीक्षित मृत देह को नेत्र की स्थिरता, नाड़ी का न चलना व हृदयस्पंदन न होना आदि चैतन्याभाव सूचक लक्षणों से निर्जीव पहिचान कर एकान्त जीव-जन्तु बाधारहित निर्मल वन आदि प्रदेश में अग्नि द्वारा संस्कारित करना चाहिए। साधर्मी भाइयों का कर्तव्य है कि लौकिक सम्मान की व व्यवस्था की दृष्टि से मृत को सामूहिक रूप से स्मशान में ले जाँय । वहाँ वायु के सञ्चार तथा जलस्नानादि द्वारा उसकी बार-बार परीक्षा हो जाने पर ही उसका निर्जन्तु काष्ठादि की अग्नि से संस्कार करें। । मृत मनुष्य के नजदीकी और स्नेही बन्धु ही प्रथम अग्नि संस्कार करें। इस नियम का पालन करने से कभी रुग्णावस्था व दुर्बलावस्था से मूर्च्छित व्यक्ति का किसी शत्रु भाववाले व्यक्ति द्वारा जीवितावस्था में ही अग्निदाह हो गया ऐसी शंका को स्थान नहीं रहता। अग्निदाह समाप्त होने पर तृतीय दिवस या पञ्चम दिवस भस्म तथा अस्थियों को भूमि में गड्ढा कर उसमें गाड़ देना चाहिए। नदी आदि जलाशय में उस क्षार पदार्थ को नहीं डालना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से नदी के असंख्य प्राणियों का जल जन्तुओं का घात होता है। अनेक लोग गङ्गादि नदी में अस्थि विसर्जन को पुण्य मानते हैं। वे समझते हैं कि गंगादि स्नान से आत्मा पवित्र होती है अतः मृत देह को भी गंगा स्नान कराना पवित्रता का हेतु होगा और मृतात्मा का उद्धार होगा। यह बात नितान्त असत्य है। कारण गंगादि नदी का जल शारीरिक मैल को धो सकता है। आत्मा की मलीनता तो पापों के गलने से ही जा सकती है। जैसे कुरते में लगा हुआ मैल धोती के धोने से नहीं छूट सकता, वैसे ही शरीर का मैल धोने से आत्मा का मैल पाप नहीं धुल सकता, अतः गंगादि में अस्थिविसर्जन करना व्यर्थ है। यह असत्कल्पना उन ठगों द्वारा बना दी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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