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________________ नैष्ठिकाचार १९७ का संबंध से छूटना शक्य नहीं है। वहीं कहीं किसी-किसी देश में इनका बहुत सावधानी से परहेज रखा जाता है पर यह सर्वत्र नहीं होता और न संभव ही है। मरण समय शोकातुरता के कारण और पुत्रोत्पत्ति के समय हर्षातिरेक के कारण परहेज कम होता है अतः यह अपवित्रता भी बिना काल शुद्धि के दूर नहीं होती भले ही उसके पूर्व घर की स्वच्छता तथा वस्त्रों की स्वच्छता कर ली गई हो। शोकातिरेक और हर्षातिरेक दोनों में रागद्वेष की प्रबलता मन में उत्पन्न हो जाती है। रागद्वेष का अतिरेक भी एक महान् अशौच है। तात्कालिक मरण और जन्म की घटनाओं से वह अशौच शीघ्र नष्ट नहीं होता। उसे शान्त होने में कुछ काल लगता है उसे ही कालशुद्धि या सूतक शुद्धि कहते हैं। जिनके यह रागद्वेष का अतिरेक हो उनको मन्दिर आदि पवित्र स्थानों में जाना तथा पूजनादि धार्मिक क्रियाएँ करना वर्जित है। यहाँ पर यह प्रश्न हो सकता है कि ऐसे समय धार्मिक कार्यों को वर्जन कर और भी अनर्थ किया जाता है। धर्मकार्य के लिए यह रुकावट कैसी? धर्म से तो अशुद्ध व्यक्ति भी शुद्ध बन जाता है। इस प्रश्न का समाधान यह है कि प्रत्येक व्यक्ति जो धर्मस्थानों में धर्मलाभार्थ जाता है उसका सम्बन्ध उस तक ही सीमित नहीं है, किन्तु उसके निमित्त से अनेक दर्शनार्थी, पूजार्थी, स्वाध्यायार्थी भाइयों से भी उसका सम्बन्ध है जो कि उक्त लाभ के लिए जिन मन्दिरों में जाते हैं। उक्त अशौच के समय सम्बन्धित व्यक्ति मन्दिर में जाकर भी अपने को नहीं सम्हाल पाता बल्कि अपने शोक के कारण अन्य उपस्थित व्यक्तियों को भी शोकाविष्ट बना देता है। तद्वत् हर्षातिरेक वाला मन्दिर में स्थित प्रत्येक साधर्मी के सामने अपने हर्ष की चर्चा कर बैठता है। इन दोनों कार्यों से दर्शनार्थी और पूजनार्थी भाइयों का समय भी व्यर्थ जाता है, वे भी उसके शोक या हर्ष के प्रवाह में बह जाते हैं। अतः सूतक के दिनों में अशौच मान कर समष्टिगत धार्मिक कार्यों से दूर रहकर व्यक्तिगत सामायिकादि स्तुति व पाठादि धार्मिक कार्यों के द्वारा धर्म का साधन करना चाहिए। मृत रोगी की बीमारी भी यदि कोई छुआछूत की हो या राजरोग हो तो उसके सम्पर्क में रहनेवाले वस्त्रादि की तथा सम्बन्धित व्यक्तियों की शुद्धि जब तक न हो जाय तब तक सम्पर्क रखने से बीमारी के फैलने या बढ़ने का शक बना रहता है, अतः लौकिक लाभ की दृष्टि से भी सूतक विधि को मानना लाभदायक है। मरण का सूतक वंश की तीन पीढ़ी तक अथवा खुद की पीढ़ी जोड़कर चार पीढ़ी तक के लोगों को १२ दिन का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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