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________________ प्रयोग नहीं किया, किन्तु वे श्रावक व्रती थे अतः जैन सिद्धान्त के अनुसार उनका देहावसान होने पर अन्य पर्याय में स्वर्ग गति प्राप्त करना निश्चित है। अस्तु; वे जबलपुर जिला के अन्तर्गत मझौली ग्राम के निवासी थे, किन्तु अपनी मुकद्दमेंबाजी की हानिकारक आदतवश उत्पन्न हुई आर्थिक हानि के कारण वे अनेक स्थानों में भ्रमण कर पिंडरई (मण्डला) में व्यवसाय करने लगे थे। काल लब्धि से उनकी रुचि स्वाध्याय की ओर हुई और उन्होंने संसार देह और भोगों से उदासीनता को प्राप्त किया। अभ्यासावस्थारूप श्रावक व्रत और ब्रह्मचर्य का पालन, जिन मन्दिर में आवास, स्वाध्याय और तीर्थयात्रा ये ही उनके कार्य शेष थे । व्यावसायिक कार्य हमारे चचेरे ज्येष्ठ भ्राता तथा मामा पर छोड़ दिया था। सं. १९६५ में हमारी माता का देहावसान हुआ। पिता ने इसे सुयोग समझा और सप्तम प्रतिमा के व्रत जिनप्रतिमा के सन्मुख स्वयं गृहीत किए। इनके जीवन का परिचय पूज्य श्री १०५ क्षु० गणेशप्रसादजी वर्णी महाराज ने अपने दीक्षागुरु के रूप में अपनी आत्मकथा 'मेरी जीवन गाथा' में दिया है, अतः विशेष लिखना उपयुक्त नहीं है। इनकी इच्छा बहुत समय तक विद्याभ्यास की रही । स्वर्गीय गुरुवर्य न्यायवाचस्पति स्याद्वादवारिधि पंडित गोपालदासजी वरैया मोरेना (ग्वालियर स्टेट) में उन दिनों जीवित थे। वे दिग्गज विद्वान् थे। उनके पास विद्याभ्यास हेतु गए, मैं भी साथ था। गुरुजी ने मुझे रत्नकरण्ड श्रावकाचार के कुछ श्लोक पढ़ाए और बाद में यह कह दिया कि बालक छोटा है इसे मथुरा पहुँचा दो। वहाँ महासभा का महाविद्यालय खुलनेवाला है। मुझे मथुरा भेजकर वे मोरेना में अध्ययन करते रहे। अध्ययन काल के बाद उनके व्रतों में विशेष विशुद्धि आई। उनके अनेक शिष्य हुए। विशेष संख्या होने के कारण दमोह के पास श्री कुण्डलपुरजी नामक प्राचीन क्षेत्र पर ब्रह्मचारियों का एक आश्रम स्थापित किया। एक आश्रम इन्दौर में भी स्थापित किया जो अभी उदासीनाश्रम के नाम से चल रहा है। इनका उद्देश्य ग्राम्य जनता को धार्मिक शिक्षण देना था, अतः वे प्रायः ग्रामों में विहार करते थे और वहीं विहार करने के लिए शिष्य समुदाय को भी प्रेरणा करते थे। लौकिक कीर्तिकी अभिलाषा उन्हें छू तक न गई थी, इसलिए इतनी सेवाओं के बाद भी शहरी जनता तथा अखबारी दुनिया के लोग उन्हें कम जानते थे । XV उन्होंने “श्रावकप्रतिमादर्पण" नाम से एक ग्रन्थ लिखना प्रारम्भ किया था। वे चाहते थे कि श्रावकों की प्रतिमाओं के सम्बन्ध में एक ग्रन्थ ऐसा लिखा जाय जो सरल हो और उसे पढ़ने के बाद कोई भी व्रती निसंदेह होकर व्रत पालन में अग्रसर हो । जीवन के अन्त में दिनों में उन्होंने मुझे बुलाकर कहा कि मेरा ग्रंथ अपूर्ण रहा जाता है। तुमने विद्या प्राप्त की है, तुम इसे पूरा कर सकते हो, अतः इसे पूर्ण करना । यह उनकी अन्तिम आज्ञा थी। मैं चाहता था कि उसे पूरा कर दूँ, पर मुझे कठिनता का अनुभव हुआ। कारण यह था कि उन्होंने हिन्दी शास्त्रों की पुरानी जयपुरी ढूंढारी भाषा में लिखना प्रारम्भ किया था। उस भाषा में प्रयत्न करने पर भी मैं नहीं लिख सका। अनेक वर्षों तक ग्रंथ रखा रहा और मैं कार्य से निराश हो गया, यह समझ कर कि मैं इसे लिख न सकूँगा, फिर भी चित्त में खटका था। मुझे अन्तःप्रेरणा होती थी कि इस सम्बन्ध में कुछ लिखा जाय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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